गतिविधि २०११

भारतीय लेखक-शिविर एवं आधुनिक हिन्दी कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

विद्याश्री न्यास ने इस वर्ष अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन व केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती के उपलक्ष्य में आधुनिक हिन्दी कविता में इनके योगदान पर केन्द्रीय संस्थान, आगरा के सहयोग से एक त्रिदिवसीय संगोष्ठी एवं भारतीय लेखक-शिविर (१२-१४ जनवरी, २०११) का आयोजन किया।

उद्घाटन-सत्र की शुरुआत मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति श्री गिरिधर मालवीय व अध्यक्ष प्रो. कुटुम्ब शास्त्री (कुलपति, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय) द्वारा सरस्वती व स्व. पंडितजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण तथा पं. लेखमणि त्रिपाठी द्वारा पौराणिक वन्दना से हुई। प्रमुख वक्ता श्री मालवीयजी ने श्री विद्यानिवास मिश्र की विलक्षण प्रतिभा को याद करते हुए उनकी स्मृति में आयोजित ऐसे सारस्वत कार्यक्रम को उस गरिमा के अनुवूâल बताया। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत डॉ. उषा किरण खान ने विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए पंडितजी एवं नागार्जुन के रोचक संस्मरण सुनाये। अध्यक्षीय सम्बोधन में शास्त्री जी ने कहा कि आज जो नैतिक गिरावट समाज में आयी है, वह साहित्य के पाठकों की कमी के कारण है। ऐसे आयोजनों से यह कमी अवश्य दूर होगी। पंडितजी को भी समाज की ऐसी ही परख थी। वे रॉयल टच के होते हुए भी कॉमन टच वाले थे। सत्र का संयोजन अरुणेश नीरन ने किया एवं न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने धन्यवाद करते हुए इस महायज्ञ में अतिथियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।

विमर्श के सत्रों की शुरुआत ‘नागार्जुन और आधुनिक हिन्दी कविता’ से हुई, जिसमें संयोजक बलराज पाण्डेय ने बाबा की कविता को भारतीय लोकधर्मी कविता का वास्तविक रूप बताया। औरंगाबाद से आयी भारती गोरे ने नागार्जुन की कविता को उनके सामाजिक-राजनीतिक अनुभवों की शृंखला माना। उषा किरण खान ने फिर अपने संस्मरण सुनाते हुए इस बार अपनी काकी (बाबा की पत्नी) पर फोकस किया कि वे बाबा की कविताओं में पूरी तरह संलिप्त थीं। उन्हें हर कविता के स्रोतों का सही पता था। इस सत्र की अध्यक्षता बाबा के सुयोग्य पुत्र श्री शोभाकांत ने की। उन्होंने पिता की कविताओं में तात्कालिकता की छाप को ज्वलंत समकालीन समस्याओं के प्रति उनकी गहन अनुरक्ति के रूप में देखा और प्रेम कविताओं को अन्तरतर की संवेदना का सच्चा रूपायन बताया।

दूसरा सत्र ‘अज्ञेय और आधुनिक हिन्दी कविता’ की शुरुआत सयोजक सत्यदेव त्रिपाठी द्वारा बीज वक्तव्य के रूप में अज्ञेयजी पर लिखे स्व. विद्यानिवासजी के लेख ‘पलाश के पूâल की दहक’ के पाठ से हुई, जिसमें अज्ञेय पर सभी सम्भावित विमर्शों का सूत्रवत निदर्शन सुनने को मिला। अज्ञेय की अध्येता चन्द्रकला त्रिपाठी ने उन्हें व्यक्तिवादी-रूढ़िवादी लेबल्स से बाहर निकालते हुए अन्वेषक व प्रयोगवादी करार दिया। रीतारानी पालीवाल ने अज्ञेय के साहित्य में जापानी प्रभाव को रेखांकित करने का अच्छा आयाम उठाया व एक हद तक किया भी, और इस क्रम में गद्य-साहित्य की तरफ भी संकेत किया। अगले वक्ता राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय अपनी सनातन परम्परा में आधुनिक कविता को वेदों से जोड़ते हुए ‘असाध्य वीणा’ तक आये और विद्या बिन्दु सिंह ने ‘समकालीन कविता: वर्तमान और भविष्य’ पर अपना आलेख-पाठ किया। अध्यक्षीय वक्तव्य में कृष्णदत्त पालीवाल ने अज्ञेय-पूर्व समूची आधुनिक कविता के परिप्रेक्ष्य में वात्स्यायनजी का सटीक मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए उदाहरणों की झड़ी लगा दी और कवि रूप में उन्हें प्रसाद के करीब माना। पालीवालजी ने अज्ञेय को साहित्य का लोहिया बताते हुए इलियट के समक्ष उनके वक्तव्य ‘तुम योरप की तरफ से बोलते हो, तो मैं भारत की तरफ से बोलता हूँ’ को उद्धृत किया।

शाम पाँच बजे से सात बजे तक बीएचयू के हिन्दी विभागाध्यक्ष राधेश्याम दुबे की अध्यक्षता व प्रो. सुरेन्द्रप्रताप के संचालन में ‘समवाय’ के अंतर्गत उक्त दोनों कवियों पर नयी पीढ़ी के ५-७ मिनटों के आलेख प्रस्तुत हुए और यह क्रम दूसरे दिन सुबह नौ बजे से ग्यारह बजे के दौरान शमशेर व केदारजी पर भी चला, जिसकी अध्यक्षता काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष श्रद्धानन्द व संचालन डॉ. शिवकुमार मिश्र ने किया। इसमें स्थानीयों के साथ मुम्बई, आसाम, सिक्किम, अरुणांचल आदि पूरे भारत से आये कुल लगभग चालीस युवाओं ने लेख पढ़े, जो नियत निर्णायक-मंडल द्वारा सुने व जाँचे गये और अंक के आधार पर प्रत्येक कवि पर दो-दो पुरस्कार भी दिये गये। न्यास का यह आयोजन इसी साल शुरू हुआ तथा पिछले सालों से चले आ रहे कविता व निबन्ध-स्पर्धा को मिलाकर कुल १८ पुरस्कार दिये गये। इस पूरी योजना का संचालन सत्यदेव त्रिपाठी के जिम्मे रहा, जिन्होंने पुरस्कार-समारोह का संचालन करते हुए कहा कि जिस तरह का उत्साह व लगन लिये युवा पीढी आयी है, उसे देखते हुए अगले सालों में इस ‘समवाय’ योजना को और व्यवस्थित व विकसित करने की आवश्यकता है।
शिविर के दूसरे दिन के पूर्वाह्न एवं अपराह्न के दो सत्रों में क्रमश: शमशेर बहादुर सिंह व केदारनाथ अग्रवाल के सन्दर्भ में आधुनिक कविता पर चर्चा हुई। पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार व सम्पादक प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपने सुदीर्घ व्याख्यान में कहा कि शमशेर को प्रगतिशील, रूमानी, रूपवादी आदि घटकों में बाँधकर देखने वाली एकांगी आलोचनाओं से नहीं समझा जा सकता; क्योंकि वे संश्लिष्ट कवि हैं। उन्हें समझने के लिए कविताओं के अलावा उनके समूचे रचना-संसार से गुजरना होगा। उन्होंने शमशेर-काव्य के ढेर सारे सामाजिक व कलात्मक आयामों को व्याख्यायित किया, लेकिन सौन्दर्य एवं प्रेम को उनका मूल स्वर बताते हुए कहा कि उनकी प्रगतिशीलता और प्रेम के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है। वक्ताओं में वशिष्ठ अनूप ने उनकी विशिष्ट अन्दाज की गजलों को सबसे बड़ी देन बताया। श्रीप्रकाश शुक्ल ने शमशेर को कविता के प्रति पूर्णत: समर्पित और अनुभूति का कवि कहा। सत्र का शालीन संयोजन किया जितेन्द्रनाथ मिश्र ने।

अगले सत्र की शुरुआत संयोजक रामसुधार सिंह द्वारा कवि केदारनाथ अग्रवाल पर पण्डितजी के आलेख-पाठ से हुई। इसे आगे बढ़ाते हुए अवधेश प्रधान ने कवि केदार को पहली पंक्ति का ऐसा कवि बताया, जिसने छायावादी काव्य-भाषा से मुक्त अपनी मौलिक काव्य-भाषा तलाशने में सफलता पायी। इसके बाद विदुषियों के नाम रहा यह सत्र, जिसमें कुमुद शर्मा ने केदार नाथ अग्रवाल के काव्य-विधान में जनसंस्कृति, ऐतिहासिकता व तमाम काव्यान्दोलनों की झाँकी देखी। प्रेमशीला शुक्ल ने उन्हें सर्वाधिक विविधता वाले कवि के रूप में रेखांकित किया। शशिकला पाण्डेय ने कवि केदार को गहन जिजीविषा तथा प्रकृति के रहस्यों को स्वर देने वाला कवि कहा। अध्यक्षीय सम्बोधन में चितरंजन मिश्र ने उन्हें किसान चेतना के सच्चे आधुनिक कवि के रूप में प्रस्तुत किया।

संगोष्ठी के शीर्षक को सार्थक करता सत्र हुआ शाम को- ‘आधुनिक कविता: वर्तमान और भविष्य’। इसकी शुरुआत भी योजनानुसार पण्डितजी के आलेख से हुई, जिसका सधा पाठ किया संयोजक प्रकाश उदय ने। ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने आज की कविता के व्यापक सरोकारों को भूमंडलीकरण, बाजार, पर्यावरण, स्त्री-दलित विमर्श आदि में परखा। माधवेन्द्र पाण्डेय ने आधुनिक कविता में आये ह्रास को ‘जीवन और कविता के बीच बढ़ी दूरी’ और ‘मार्वेâट की वस्तु बनती कविता’ में देखा। प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण तिवारी ने कविता की विशिष्टताओं की चर्चा में उसे संवेदनशील व्यक्ति की अनुभूति कहा। इसी विशिष्टता वाले पक्ष को आगे बढ़ाते हुए अध्यक्ष अनंत मिश्र ने कविता को समाज की प्रेरक तथा रुचियों का संस्कार करने वाली बताते हुए आधुनिक कविता की पहचान इहलोक की कविता रूप में की।

उक्त दोनों ही दिनों की शामें साहित्यिक-सांस्कृतिक समारोहों से गुलजार रहीं। पहली शाम को श्रीकृष्ण तिवारी के संचालन में हुई काव्यगोष्ठी में हिन्दी व भोजपुरी के बत्तीस कवियों ने काव्य-पाठ किया और दूसरे दिन प्रसिद्ध बिरहा गायक हीरालाल यादव का झमाकेदार गायन हुआ।

तीसरे दिन समापन के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध कवि प्रो. केदार नाथ सिंह थे तथा अध्यक्षता पद्मश्री सुनीता जैन ने की। इस अवसर पर पंडित जी द्वारा लिखित और सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘द स्ट्रक्चर ऑफ इंडियन माइंड’ एवं उन पर लिखी दो पुस्तकों का लोकार्पण हुआ- ‘रसपुरुष पं. विद्यानिवास मिश्र’- नर्मदा प्रसाद उपाध्याय एवं ‘विद्यानिवास मिश्र की शब्द-सम्पदा’- आशुतोष मिश्र।

पंडित जी की यादों वाले इस सत्र के प्रमुख अतिथि प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह ने अपने जीवन में उनके योगदान को बड़े सलीके से रेखांकित करते हुए उन्हें लोकचित्त वाला व्यक्ति कहा। हिन्दी कविता को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने वाले के रूप में उनके श्रेय की चर्चा की। इस क्रम में उड़िया के विख्यात कवि श्रीनिवास उद्गाता ने स्व. मिश्रजी को माँ शारदा का वरद पुत्र कहा। काशीनाथ सिंह ने ३-४ सालों में न्यास के बीज को वृक्ष बन जाने के सहृदयतापूर्ण उल्लेख के साथ यादों के कई आत्मीय गवाक्ष खोले। कमलेश दत्त त्रिपाठी ने पंडितजी को समझने के प्रयास के साथ ही उनकी परम्परा को सही दिशा देने की आवश्यकता पर बल दिया। गिरीश्वर मिश्र, प्रभाकर मिश्र एवं विद्याबिन्दु सिंह ने भी पंडितजी के साथ की अपनी यादों को सभा के समक्ष रखा। सत्र की अध्यक्षता कर रही साहित्यकार सुनीता जैन ने स्त्रियों के प्रति पं. विद्यानिवास मिश्र के उदार दृष्टि को रोचक आख्यानों के माध्यम से सुनाते हुए उनके सर्वजन समभाव वाले व्यक्तित्व को याद किया।
इस सत्र का संचालन श्री प्रकाश उदय ने किया। कार्यक्रम की अंतिम कड़ी के रूप में ‘विद्याश्री न्यास’ के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने इस बड़े आयोजन में जिस किसी भी रूप में शामिल व सहायक होने वाले सभी लोगों का मन:पूर्वक आभार माना।

विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान/लोककवि सम्मान

पण्डित विद्यानिवास मिश्र के जन्मदिवस पर आयोजित लेखक-शिविर में विद्याश्री न्यास की तरफ से कवि श्री हीरालाल यादव को ‘लोककवि सम्मान’ एवं बहुमुखी रचनाकार श्री अमृत लाल बेगड़ को ‘तृतीय विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान’ प्रदान किया गया। सत्र के मुख्य अतिथि प्रो. केदार नाथ िंसह एवं अध्यक्ष पद्मश्री सुनीता जैन ने अंगवस्त्रम्, प्रशस्तिपत्र एवं स्मृतिचिह्न के साथ माल्यार्पण करके सत्कारमूत्र्तिद्वय को सम्मानित किया। स्मृति पुरस्कार के रूप में २१०००/- की धनराशि भी श्री अमृत लाल बेगड़ को प्रदान की गयी। इस अवसर पर सम्मानित रचनाकार श्री अमृत लाल बेगड़ ने कहा कि ऐसा सम्मान साहित्य-संस्कृति और कला की नगरी वाराणसी में ही हो सकता है। उनका भाषण बेहद आह्लादक व ज्ञानवर्धक रहा। हीरालाल यादव ने भी सम्मान के लिए पंडितजी की स्मृति को नमन करते हुए न्यास के प्रति अपना आभार माना।

निबंध, आलेख-पाठ, पोस्टर-निर्माण एवं काव्य-प्रतियोगिता

इसी क्रम में दिनांक १४ जनवरी, २०११ को सरिता उपाध्याय, चुकी भाटिया, सोनी स्वरूप, राकेश कुमार, श्रद्धा सिंह, जया दयाल, अर्चना झा, नीतू जायसवाल को शोध-पत्र के लिए, हरि पियारी देवी, विनीता सिंह, लक्ष्मण मिश्र, सुनीता, वीणा सुमन, मीलन सिंह, को निबन्ध के लिए; सच्चिदानंद देव पाण्डेय, सौरभ सिंह, रोहित कुमार, को कविता के लिए तथा शालिनी सिंह, राजकुमार सिंह, सपना सिंह, इजाद अहमद, सुनीता प्रजापति को पोस्टर-निर्माण के लिए तथा वसुदत्त मिश्र एवं धारिणी मिश्र को स्तोत्र-वाचन के लिए पुरस्कृत किया गया।

‘चिकितुषी’ पत्रिका का प्रकाशन

विद्याश्री न्यास की सांवत्सर पत्रिका ‘चिकितुषी’ के पाँचवे अंक का प्रकाशन किया गया।

कवि-अभ्यर्चना का आयोजन

विद्याश्री न्यास, नांदी, नांदी पत्रिका तथा गांधी अध्ययन केन्द्र, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव के संयुक्त तत्त्वावधान में मंगलवार दिनांक १८ जनवरी, २०११ को दोपहर रथयात्रा स्थित कन्हैयालाल मोतीवाला स्मृति भवन में आयोजित ‘कवि अभ्यर्चना’ कार्यक्रम के अंतर्गत आकाशवाणी के सर्वभाषा कवि-सम्मेलन के सिलसिले में वाराणसी पधारे संविधान-स्वीकृत सभी भाषाओं के प्रतिनिधि कवियों का भव्य सम्मान किया गया। वाराणसी की प्रमुख साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों द्वारा उत्तरीय, स्मृतिचिह्न, नारिकेल और पुष्पहार अर्पित करके जिन कवियों का सार्वजनिक अभिनंदन इस अवसर पर किया गया उनके नाम हैं- हर्षदेव माधव (संस्कृत), मणि वुंâतला (असमिया), पद्मश्री श्रीनिवास उद्गाता (उड़िया), डॉ. सईदा शानेमिराज (उर्दू), जीके रवींद्र कुमार (कन्नड़), युसुफ अहमद शेख (कोंकणी), बालकृष्ण संन्यासी (कश्मीरी), जितेंद्र ऊधमपुरी (डोंगरी), भारती वसंतन (तमिल), के.शिवा रेड्डी (तेलुगु), कमल रेग्मी (नेपाली), एस एस नूर (पंजाबी), अनुराधा महापात्र (बांग्ला), स्वर्ण प्रभा सेनारी (बोडो), मोराथेम बरकन्या (मणिपुरी), आलकोड लीलकृष्ण (मलयालम), दत्ता हलसगीर (मराठी), रवींद्रनाथ ठाकुर (मैथिली), प्रो. आसन बासवानी (सिंधी), खेरवाल सरेन (संथाली), विष्णु नागर एवं विनय उपाध्याय (हिंदी)। आयोजन में सर्वश्री राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, मंजुला चतुर्वेदी और सुरेश नीरव सहित काव्य-अनुवादकों तथा कवि-सम्मेलन के संचालक श्रीकृष्ण तिवारी को भी सम्मानित किया गया। सुश्री अलका पाठक की अध्यक्षता, आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी के मुख्य आतिथ्य तथा डॉ. वेणीमाधव शुक्ल एवं डा. एस.पी.ओझा के विशिष्ट आतिथ्य में सम्पन्न इस समारोह के मंच पर प्रो. राधेश्याम दुबे, प्रो. प्रभुनाभ द्विवेदी, प्रो. योगेन्द्र सिंह और प्रो. हरेराम त्रिपाठी के साथ-साथ आकाशवाणी के दिल्ली, लखनऊ और वाराणसी केन्द्रों के कई बड़े अधिकारी उपस्थित थे। सभी ने एक स्वर से कार्यक्रम की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस प्रकार के सम्मान-समारोह काशी नगरी में ही संभव है। स्वागत और सम्मान में आयोजक-मंडल के सर्वश्री डॉ. दयानिधि मिश्र, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पांडेय, डॉ. उदयन मिश्र, डॉ. शशिकाला पांडेय, डॉ. प्रकाश उदय और श्रीकृष्ण तिवारी आदि की सहभागिता उल्लेखनीय रही। इस अवसर पर सम्मानित कवियों ने अपनी रचनाएँ भी सुनार्इं।

संस्कृत कवि-गोष्ठी

पंडित  विद्यानिवास  मिश्र  की  पुण्यतिथि (१४ फरवरी) के अवसर पर  पूर्व की भाँति इस वर्ष भी विद्याश्री न्यास की तरफ से संस्कृत काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह गोष्ठी भारत धर्म महामण्डल, लहुराबीर में संस्कृत के प्रख्यात पण्डित कवि आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. रमेश चन्द्र पण्डा, डीन, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, बी.एच.यू. की उपस्थिति में सम्पन्न हुई। भारत धर्म महामण्डल के महासचिव पं. धर्मशील चतुर्वेदी ने कवियों का स्वागत किया, साथ ही संस्कृत भाषा-साहित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इस काव्य-गोष्ठी को आज की जरूरत के रूप में रेखांकित किया। गोष्ठी के प्रारंभ में पं. श्रीकृष्ण तिवारी ने पं. विद्यानिवास मिश्र के संस्कृत एवं कविता-प्रेम को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
काव्य-गोष्ठी में प्रो. कमलेश झा ने ‘शिवतत्त्वमीदृशम्’ शीर्षक कविता पढ़ी। डॉ. पवन कुमार शास्त्री ने ‘सन्यमस्ति ते तरुणि, मधुमयो देशोऽयं रसशाला’ का सस्वर पाठ किया। डॉ. उमारानी त्रिपाठी की रचना ‘करोमि राष्ट्रवन्दनम्’ को काफी पसंद किया गया। डॉ. धर्मदत्त चतुर्वेदी ने ‘प्रो. विद्यानिवास पञ्चकम्’ के द्वारा पण्डित जी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की। प्रो. राजाराम शुक्ल ने ‘विवेकवाणी’, प्रो. कौशलेन्द्र पाण्डेय ने ‘वयं धार्मिका:’ डॉ. कमलाकान्त त्रिपाठी ने ‘कुक्कुटाण्डभोज्यम्’, डॉ. भागवतशरण शुक्ल ने ‘हेमन्तौप्रणम्या जना:’, डॉ. सदाशिवकुमार द्विवेदी ने ‘द्रव्यस्य दासा : वयम्’ डॉ. गंगाधर पण्डा ने ‘मुकुन्दलहरी’, डॉ. हरिप्रसाद अधिकारी ने ‘जागृयात् कविभारती’, श्रीनाथधर द्विवेदी ने ‘स्धीयतां जम्बुकेनेव तावत्’, डॉ. राममूर्ति चतुर्वेदी ने ‘श्रद्धांजलि’ शीर्षक कविता का पाठ किया। डॉ. चन्द्रकान्ता राय की गीति-रचना ‘शोभते वाटिका न पुष्पं विना’ को श्रोताओं ने सराहा। कविगोष्ठी में समसामयिक समस्याओं को लेकर चुटीले व्यंग्य भी प्रत्यक्ष हुए।
काव्य-गोष्ठी का संचालन प्रो. हरिप्रसाद अधिकारी ने किया। गोष्ठी में प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी, प्रो. गयाराम पाण्डेय, प्रो. हरेराम त्रिपाठी, डॉ. पुष्पा त्रिपाठी, डॉ. अशोक सिंह, डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र, प्रो. रामबख्श मिश्र, डॉ.उदयन मिश्र,श्री प्रवीण तिवारी,प्रकाश उदय प्रभृति विद्वज्जन ने काव्यास्वाद प्राप्त किया। धन्यवाद-ज्ञापन विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने किया।

छठा विद्यानिवास मिश्र-स्मृति-व्याख्यान

विद्याश्री न्यास ने विगत १४-१५ नवम्बर को अपने वार्षिक कार्यक्रम ‘पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति व्याख्यान-माला की छठी कड़ी के रूप में प्रसिद्ध भाषाविद् श्री माणिक गोविन्द चतुर्वेदी (भू.पू. प्रोपेâसर, एनसीआरटी) के तीन महत्त्वपूर्ण व्याख्यान आयोजित किये। यह उपक्रम बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव एवं म.गां. काशीविद्यापीठ, वाराणसी के हिन्दी विभाग के सहयोग से सम्पन्न हुआ।

इसके अन्तर्गत पहले दिन दो सत्रों में दो व्याख्यान बड़ागाँव में हुए, जिसमें सरस्वती-वन्दना, प्राचार्य डॉ. उदयन मिश्र के स्वागत-सम्बोधन तथा सविता श्रीवास्तव द्वारा नरेश मेहता की कविता-‘मंत्रमुग्ध’ के पाठ के बाद ‘भारतीय भाषा-चिंतन’ पर बोलते हुए श्री चतुर्वेदी ने भारतीय ज्ञान को मूलत: भारतीय भाषा-चिन्तन पर आधारित बताया। पश्चिमी भाषा-चिन्तन ने भारतीय भाषा-चिन्तन से बहुत कुछ सीखा है, सीख रहा है। खेद का विषय है कि हमीं उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। उन्होंने अंग्रेजी ढंग से भारतीय इतिहास, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि को समझने की कोशिशों को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। दूसरे सत्र में भारत की भाषिक एकता पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी-उर्दू जैसे भाषिक विभेद राजनैतिक हैं, भाषा वैज्ञानिक नहीं। भाषा के मामले में ही नहीं, विभिन्न स्तरों पर आज भी हम अंग्रेजों के तरीके से ही सोच रहे हैं और यही, भाषा ही नहीं; हर स्तर पर हमारी दुर्गति का कारण है। उन्होंने उक्त तथ्यों को सोदाहरण समझाया और स्थापित किया कि आर्थिक संरचना के स्तर पर ही नहीं भाषिक संरचना के प्रत्येक स्तर पर भारतीय भाषाएं एक दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैंं।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. श्रद्धानन्द, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ ने भाषा के प्रति मनुष्य के उपेक्षापूर्ण रवैये को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रेखांकित किया और इसे मानव सभ्यता-संस्कृति के लिए खतरनाक बताया। उन्होंने विद्यार्थियों को शब्द-साधना के लिए प्रेरित किया और उन्हें एक रोचक विषय के रूप में भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। दूसरे सत्र की अध्यक्षत करते हुए महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ के प्रोपेâसर सत्यदेव त्रिपाठी ने बताया कि भारतीय भाषाओं की एकता के                दो प्रमुख सूत्र हैं। पहला संस्कृत, जिससे सारी भाषाएं निकली हैं और उसी ढाँचे पर चल रही हैं। दूसरा सूत्र है लोक। सारे देश का लोक-जीवन सांस्कृतिक स्तर पर एकता के सूत्र में निबद्ध है जो सारी भाषाओं में गँुथा हुआ है  उस धागे के तरह जो अलग-अलग पूâलों के बीच माला को एक कर देता है। इसे उन्होंने मराठी-गुजराती-मलयालम-तमिल आदि के उदाहरणों से प्रमाणित भी किया। दोनों सत्रों का संचालन प्रकाश उदय ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. छोटे लाल ने किया। विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने परिचय दिया।

दूसरे दिन डॉ. चतुर्वेदी का तीसरा व्याख्यान महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ के मानविकी संकाय के सभागार में सम्पन्न हुआ, जिसका विषय था भारतीय साहित्य में एकात्मकता। प्रो चतुर्वेदी ने अपने व्याख्यान में कहा कि साहित्य भी भाषा की ही एक प्रयुक्ति है और जिस तरह भारतीय भाषाओं में एकता के सूत्र विद्यमान हैं उसी तरह भारतीय साहित्य में भी। यह एकता उन भाषाओं में भी है जिनमें शास्त्रीय चिन्तन की परम्परा नहीं है और उनसे भी ज्यादा उन भाषाओं में है, जिनमें शास्त्रीय चिन्तन की परम्परा है और उनसे भी ज्यादा उन भाषाओं में है, जिनमें शास्त्रीय चिन्तन की ही नहीं, ललित लेखन की भी परम्परा रही है।

इस अवसर पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान के प्रो. प्रमोद दुबे ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए साहित्य की एकात्मकता को सभी भाषाओं में मौजूद ‘अकार’ से जोड़ा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने भारतीय साहित्य की एकात्मकता को बहुत कुछ भक्तिकाल की उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया। डॉ. निरंजन सहाय एवं प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने प्रश्न-प्रतिप्रश्नों और अपने वैचारिक हस्तक्षेप से संगोष्ठी की गरिमा बढ़ायी।

अतिथियों का स्वागत काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. श्रद्धानन्द ने किया, डॉ. दयानिधि मिश्र ने धन्यवादज्ञापन करते हुए हिन्दी के हित के लिए युवाशक्ति को कबीर की तरह लिए लुकाठी हाथ चलाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने उपजीव्य के रूप में रामायण-महाभारत को भारतीय एकात्मकता का महत्त्वपूर्ण सूत्र बताया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. शिवकुमार मिश्र ने किया।

अज्ञेय-स्मृति-व्याख्यान

पं. विद्यानिवास मिश्र द्वारा स्थापित ‘श्रद्धानिधि न्यास’, गाँधी अध्ययन-केन्द्र, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव, विद्याश्री न्यास एवं साहित्यिक संघ, वाराणसी के संयुक्त तत्त्वावधान में २६ दिसम्बर को संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के योग-साधना केन्द्र में और ३० दिसम्बर को श्रीबलदेव पी.जी. कॉलेज में प्रसिद्ध साहित्यकार, विचारक पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह ने अज्ञेय की स्मृति में आयोजित व्याख्यानमाला के अन्तर्गत अज्ञेय के कवि कर्म, उनकी पत्रकारिता और यायावरी तथा एक आलोचक राष्ट्र के गद्यकार के रूप में अज्ञेय के रचना-कर्म पर अपने तीन व्याख्यानों के माध्यम से विस्तार से विचार किया।

अपने पहले व्याख्यान में उन्होंने बताया कि जड़ीभूत साहित्याभिरुचि जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि से भी अधिक घातक होती है। प्रगति और नवप्रगति के नाम पर नयी सौन्दर्याभिरुचि का जो नया विमर्श चला उसमें कविता अपने उद्देश्य से ही भटक गई। ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों के बीच कविता की खासियत यही है कि वह सम्पूर्ण मनुष्यता को अभिव्यक्त करती है जिसके अन्तर्गत भावात्मक, बौद्धिक और ऐन्द्रिक तीनों आयामों का समन्वय होता है। वस्तुत: सर्वांगीण बुद्धिमत्ता भी यही है, लेकिन नई पीढ़ी में इसकी कमी होती जा रही है। सभी तरह के धर्मों का अतिक्रमण कर जाना ही एक प्रकार से आधुनिक धर्म बन गया है। इस दृष्टि से अज्ञेय हमारा मार्गदर्शन करते हैं क्योंकि उनकी कविता का जीवन और अनुभव की बहुस्तरीय सच्चाई से एक समग्र और बहुरूपी-बहुविध रिश्ता बनता है।

अज्ञेय की पत्रकारिता और यायावरी के संदर्भ में प्रो. शाह ने कहा कि उनके पत्रकार-कर्म में साहित्यिक और गैर-साहित्यिक दोनों प्रकार की पत्रकारिता शामिल है, और सम्पादन-कार्य भी। उनकी सर्जना की तरह उनकी पत्रकारिता भी आत्मानुशासित और मुक्त है। इस क्रम में उन्होंने एक तरफ हिन्दी भाषा को पंडिताऊ बोझिलता से छुटकारा दिलाया तो दूसरी तरफ अंग्रेजी की आक्रामक प्रभुसत्ता वाले स्वर से भी उसे मुक्त रखा। अपनी परंपरा, संस्कृति और अस्मिता के प्रति अज्ञेय को उनकी यायावरी ने निरन्तर प्रबुद्ध किया और इसके चलते भी साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में अज्ञेय विशिष्ट और स्मरणीय हैं।

अपने तीसरे व्याख्यान में प्रो. शाह ने एक आलोचक राष्ट्र के गद्यकार के रूप में अज्ञेय के रचना-कर्म पर विमर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि राजनैतिक स्वाधीनता के लिए अज्ञेय ने बेशक प्राणों की बाजी लगा दी थी, लम्बा कारावास भुगता था लेकिन सांस्कृतिक स्वाधीनता उनके लिए राजनैतिक स्वतंत्रता से कहीं उच्चतर, गहनतर मूल्य रखती थी। उन्होंने गाँधी और अज्ञेय के वैचारिक धरातल की भिन्नता के बावजूद उसमें निहित एकता के तत्त्व को भी सामने किया। अप्रâीका से लौटने के बाद देशवासियों की जो कमियाँ गाँधी जी को सबसे ज्यादा खटकीं, वे थीं- सर्वव्यापी गंदगी और मानसिक-बौद्धिक आलस्य। अज्ञेय इसी बौद्धिक आलस्य और अकर्मण्यता के आलोचक थे। नैतिक खोट, सांस्कृतिक भोथरेपन के खिलाफ गाँधी और अज्ञेय ने अपनी-अपनी तरह से संघर्ष किया।

इन तीनों व्याख्यानों में अध्यक्ष क्रमश: प्रो. राधेश्याम दूबे, प्रो. अवधेश प्रधान तथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय तथा विशिष्ट अतिथि क्रमश: प्रो. रमेश कुमार द्विवेदी, प्रो. श्रद्धानन्द और डॉ. अरुणेश नीरन ने भी अज्ञेय के रचना-कर्म के विभिन्न आयामों को विश्लेषित किया। स्वागत और धन्यवाद का दायित्व श्रद्धानिधि न्यास के न्यासी तथा विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र और श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज के प्राचार्य डॉ. उदयन मिश्र ने निभाया। संचालन डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र और डॉ. सविता श्रीवास्तव ने किया। इन व्याख्यानों में नगर के विद्वज्जन, रचनाकारों ने भारी संख्या में शिरकत की।