गतिविधि २०१२

भारतीय लेखक-शिविर एवं इतिहास, परम्परा एवं आधुनिकता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

पण्डित विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में उनके जन्मदिवस (१४ जनवरी) पर उनकी वेंâद्रीय कर्मभूमि वाराणसी में प्रतिवर्ष आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों के अन्तर्गत इस वर्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से हिन्दी विभाग, श्री बलदेव पी.जी.कॉलेज, बड़ागाँव, वाराणसी एवं विद्याश्री न्यास के संयुक्त तत्वावधान में इतिहास, परम्परा, आधुनिकता और रचनाकर्म पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं चतुर्थ भारतीय लेखक-शिविर (१४-१६ जनवरी, २०१२) कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन, रथयात्रा एवं श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव, वाराणसी के सभागार में आयोजित किया गया।
समारोह का भव्य शुभारंभ मुख्य अतिथि श्री त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी, पूर्व राज्यपाल, कर्नाटक एवं अध्यक्ष श्री रामचन्द्र खान, पूर्व पुलिस महानिरीक्षक, बिहार के हाथों दीप-प्रज्ज्वलन और माँ सरस्वती तथा पं. विद्यानिवास मिश्र के चित्र के पुष्पार्चन से हुआ। इस अवसर पर श्री चतुर्वेदी ने अपने वक्तव्य में कहा कि पण्डित जी की विद्वत्ता के अनेक आयाम हैं और उन सबको एक साथ साधे रहने वाला उनका एक सहज, संवेदनशील, गँवई व्यक्तित्व था। वे एक पूरे मनुष्य थे और किसी भी शब्द, किसी भी अवधारणा को वे उसके पूरेपन में परखते थे। अपने अध्यक्षीय संबोधन में श्री रामचंद्र खान ने बताया कि पंडित जी के व्यक्तित्व में, उनकी उपस्थिति मात्र में वह जीवंतता थी जो औरों को भी जीवन्त कर देती थी। पंडित जी ललित निबंधकार मात्र नहीं हैं वे जटिल से जटिल विचारों और अवधारणाओं तक हमारी पहुँच बनाते हैं। वे भारत विद्या के पंडित हैं, उन्हें भारत-भाव की प्रखर पहचान भी है और उन्हें जानने-समझने का एक मतलब अपने भारत को भी जानना-समझना है।

स्मृति-संवाद के क्रम में डॉ. ब्रजविलास श्रीवास्तव ने बताया कि वैâसे अपने कुलपति के कार्यकाल में पंडित जी की निर्भीकता ने एक बार मरने-मारने पर उतारू छात्रनेताओं से मेरी जान बचाई। यह पता चलते ही कि प्राक्टर को घेर लिया गया है, पंडित जी खड़ाऊँ पर ही अकेले दौड़े चले आए और उनकी उपस्थिति मात्र ने, उनकी एक डपट ने ही उन छात्रों को तितर-बितर कर दिया। प्रो. मंजुला चतुर्वेदी, प्रो. ऋता शुक्ल, डॉ. शशिकला पाण्डेय, डॉ. मुक्ता, प्रो. रामबख्श मिश्र और श्री प्रसाद जी ने पंडित जी से जुड़ी अपनी स्मृतियों को ताजा किया, उन्हें श्रोताओं के साथ साझा किया।

उद्घाटन सत्र को श्री जयेंद्रपति त्रिपाठी और डॉ. उमापति दीक्षित के वैदिक और पौराणिक मंगलाचरण से एक गरिमापूर्ण आरंभ मिला। स्वागत न्यास के संस्थापक पं. महेश्वर मिश्र ने किया। डॉ. दयानिधि मिश्र, सचिव, विद्याश्री न्यास एवं डॉ. उदयन मिश्र, प्राचार्य, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव ने सभी अतिथियों का उत्तरीय से स्वागत-सम्मान किया। न्यास का परिचय एवं विषय प्रस्तावना सत्र के संयोजक डॉ. अरुणेश नीरन ने प्रस्तुत की।

अकादमिक सत्रों की शुरुआत कथाकार निर्मल कुमार के बीज वक्तव्य ‘इतिहास, परम्परा और आधुनिकता : अन्त: संबंध’ से हुई। इसमें उन्होंने तनखैया इतिहासकारों के इतिहास-लेखन की परम्परा को घातक सिद्ध करते हुए भारतीय इतिहास-बोध और परम्परा तथा आधुनिकता की भारतीय समझ के विविध आयामों को आगे के सत्रों में विमर्श के लिए प्रस्तावित किया। दूसरे सत्र में ‘इतिहास बोध : भारतीय अवधारणा’ के अन्तर्गत डॉ. श्यामसुन्दर दूबे, निदेशक, मुक्तिबोध सृजनपीठ, डॉ. हरि सिंह गौर, वेंâद्रीय वि.वि. सागर ने लोक-दृष्टि को भारतीय इतिहास-दृष्टि का एक प्रमुख पक्ष बताया। डॉ. चितरंजन मिश्र ने कहा कि इतिहास, परम्परा और आधुनिकता में एक निरंतर संवाद है। औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि ने हमारे इतिहास-लेखन की परम्परा को क्षत-विक्षत किया और एक ऐसे इतिहास को महत्वपूर्ण बनाया जिसने भारतीय जनमानस को आत्महीनता से ग्रस्त किया। प्रो. राधेश्याम दूबे ने इतिहास की परम्परा और परम्परा के इतिहास की चर्चा करते हुए वीर पूजा की प्रवृत्ति की अभारतीयता को स्पष्ट किया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. ओमप्रकाश, पूर्व कुलपति, रूहेलखण्ड वि.वि. बरेली ने कहा कि वर्तमान युग खंडन का है, आधुनिकता इतिहास और परम्परा का खंडन करती है और भूमंडलीकरण आधुनिकता को खारिज करता है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मात्र पत्थरों के आधार पर इतिहास की समझ असंभव है। सत्र का संयोजन डॉ. बलभद्र ने किया।

तीसरे अकादमिक सत्र में विमर्श का विषय था ‘परम्परा : भारतीय संदर्भ’। इसका संयोजन करते हुए प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने ट्रेडिशन से भिन्न ‘परम्परा’ शब्द में निहित गतिशीलता को स्पष्ट किया। श्री जगदीश डिमरी और डॉ. माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने भारतीय परम्परा को भाषा और व्याकरण पर आधारित मानते हुए उसकी व्याख्या प्रस्तुत की। स्पष्ट किया कि हमारी परम्परा के वेंâद्र में सत्ता नहीं रही है, प्रबोधन और संबोधन रहा है। दोनों वक्ताओं ने इसके ब्याज से भारत की भाषा-समस्या के भी विभिन्न पक्षों को इस विमर्श से संयुक्त किया। डॉ. विद्याविंदु सिंह ने भारतीय परम्परा की बेहतर अभिव्यक्ति पारम्परिक लोकगीतों से मानते हुए उदाहरण के रूप में लोकगीतों को भी प्रस्तुत किया। अध्यक्ष प्रो. शिवजी उपाध्याय, पूर्व प्रतिकुलपति ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में विमर्श का समाहार प्रस्तुत करते हुए ‘परम्परा’ शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या से लेकर उसके समग्र अर्थ-विस्तार को समेटने का यत्न किया।

दूसरे दिन चौथे सत्र ‘आधुनिकता और उसके विकल्प : वर्तमान संदर्भ’ के संयोजक ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य से विमर्श की पीठिका तैयार की। डॉ. दिलीप सिंह ने भाषा और साहित्य के विकल्पों की खोज करते हुए कहा कि अस्मिता की भाषा के साथ ही भाषा की अस्मिता की बात अब अनिवार्य है। भारतीय भाषा-परिदृश्य के आधुनिक ढलान के विकल्प हमारे बीच हैं लेकिन उनकी खोज हमें उसी शिद्दत से करनी होगी जिस शिद्दत से हमने भक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन में की थी। डॉ. माधवेन्द्र पाण्डेय ने परम्परा को प्रगतिशील मूल्य के रूप में जबकि रूढ़ि को स्थगित मूल्य के रूप में और आधुनिकता को परम्परा की वैज्ञानिक स्वीकृति के रूप में परिभाषित किया। डॉ. अमर नाथ अमर ने कहा कि आधुनिकता भारतीय परम्परा का एक सकारात्मक पक्ष है, जिसमें जीवन-मूल्य समाहित है।

उन्होंने रामायण और महाभारत से लगायत भक्ति आंदोलन तक से आधुनिकता-बोध के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए। डॉ. बलराज पाण्डेय ने बताया कि बाजार पूंजीवाद का एक अमोघ अस्त्र है और उसने आस्था, परम्परा, आधुनिकता सबको विकृत किया है, त्याग की जगह भोग की संस्कृति को बढ़ावा दिया है। दु:खद यह है कि इसके विरुद्ध संघर्ष की प्रवृत्ति क्षीणतर होती जा रही है। प्रभाकर मिश्र ने मानुष भाव के विलोप को आधुनिकता का सबसे बड़ा संकट बताया। श्रीनिवास पाण्डेय ने भारतीय परम्परा के बोध को सच्चे अर्थों में आधुनिक होने के लिए आवश्यक बताया। प्रो. सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने आज के वैश्विक परिदृश्य में आधुनिकता के भारतीय बोध को अपने आप में बने रहने के लिए, अनिवार्य बताया। इस सत्र को डॉ. कामेश्वर उपाध्याय और विनय झा ने भी अपने विचारों से सम्पन्न किया। इस सबसे विचारोत्तेजक और लम्बे सत्र को अच्युतानन्द मिश्र के अध्यक्षीय वक्तव्य ने अपेक्षित गरिमा प्रदान की।  उन्होंने बताया कि किस तरह अंग्रेज सरकार ने योजनापूर्ण ढंग से भारत की कृषि सभ्यता को औद्योगिक सभ्यता में बदलने का और भारतीय बुद्धिजीवी को अपनी परम्परा, अपने जीवनमूल्यों अपनी संस्कृति और भाषाओं से काट देने का प्रयास किया। आधुनिक भारत का सबसे बड़ा संकट यह है कि स्वाधीन भारत के नेताओं ने उन मूल्यों को छोड़ दिया जिन्हें लेकर हमने आजादी के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने कहा कि सुखद यह है कि भारतीय युवा आज के राजनेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों को नकार चुका है क्योंकि वह इस पाखण्ड का हिस्सा नहीं बनना चाहता है। वह नया रास्ता तलाश रहा है और नया विकल्प उसी से निकलेगा।

पंचम सत्र रचनाकर्म पर वेंâद्रित था। इसका शुभारंभ साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कथाकार काशीनाथ सिंह को विद्याश्री न्यास और हिन्दी विभाग,  श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज की तरफ से सम्मानित करने के साथ हुआ। डॉ. महेश्वर मिश्र ने काशीनाथ जी के साथ मैत्री व पारिवारिक संबंधों के मार्मिक संदर्भों को याद करते हुए उन्हें रुद्राक्ष की माला, अंगवस्त्र, स्मृति-चिह्न और श्रीफल से सम्मानित किया।

विमर्श की शुरुआत करते हुए भारती गोरे ने कहा कि अपने इतिहास, उससे मिले पाठ की सकारात्मकता बनाए रखने वाली परम्परा और उनके अच्छे बुरे तत्वों की पड़ताल करने के बाद उभरी सजगता को समझने का कार्य साहित्यकार करते आ रहे हैं। इतिहास, परम्परा और आधुनिकता की परतों में भीतर ही भीतर होती अन्तर्यात्रा का उद्घाटन साहित्य में ही संभव है। प्रसिद्ध कवि अष्टभुजा शुक्ल ने कहा कि रचनाकार किसी सम्मोहन में नहीं लिखता, वह एक उद्वेग में लिखता है और उसका लेखन उद्विग्न करता भी है। उन्होंने ब्रेख्त की एक कविता के पंडित जी के किए अनुवाद के आधार पर रचना में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया।

डॉ. राजेंद्र प्रसाद पाण्डेय ने रचना में कथ्य और अभिव्यक्ति की भंगिमाओं की भूमिका की गहरी विवेचना संस्कृत और हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में की। आलोचना-कर्म पर बोलते हुए मुम्बई से पधारे प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि आज आलोचना के सामने चाहे जो संकट हो आलोचक के सामने कोई संकट नहीं है क्योंकि पता है कि उसे क्या लिखना है और इस बात की चिंता नहीं है कि इससे आलोचना का क्या होगा। ग्लोबलाइजेशन के इस युग में यह बिखराव और यह स्वच्छन्दता ही आज की सबसें बड़ी त्रासदी है।

अध्यक्षीय वक्तव्य के रूप में साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित रचनाकार श्री काशीनाथ सिंह ने कहा कि मैं बुनियादी तौर पर खुद को लेखक मानता हूँ, अध्यापन मैंने जीविका के लिए किया और करना पड़ा। लेखन के दौरान निरन्तर आत्मनिरीक्षण करता रहा कि क्या, वैâसे और किसके लिए लिखूँ। इसी क्रम में कहानी से संस्मरण से उपन्यास से कहानी की तरफ चला लेकिन इन सबके दौरान पाठक हमेशा मेरे सामने रहा। उसे नजरंदाज करके मैंने कुछ नहीं लिखा। उन्होंने जोर देकर कहा कि आज मेरे आलोचक, प्रशंसक सबने मेरी भाषा की प्रशंसा की है, यह भाषा मैंने सड़कों से, गलियों से सीखी है। भाषा पर काम करने के लिए मुझे पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेरित किया था और इसमें अपने अभिभावक समान पं. विद्यानिवास मिश्र से मुझे बहुविध मदद मिली।

पंचम सत्र में कविता, निबन्ध व काव्य-प्रतियोगिता में पुरस्कृत प्रतिभागियों द्वारा अपनी रचनाओं का पाठ भी किया गया।
समापन सत्र के साथ ही ‘इतिहास, परम्परा और आधुनिकता की अन्विति’ विषय पर गंभीर चर्चा हुई छठे सत्र में, जिसे श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज के सभागार में आयोजित किया गया।

आयोजन की शुरुआत में प्राचार्य श्री उदयन मिश्र ने अतिथियों का स्वागत किया। विषय-प्रवर्तन करते हुए प्रो. अवधेश प्रधान ने भारतीय परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व को खारिज करते हुए उसकी अन्विति को ही सहज स्वाभाविक बताया। उन्होंने पूरब बनाम पश्चिम, प्राचीन बनाम आधुनिक में परम्परा को खतियाने की प्रवृत्ति को खतरनाक बताते हुए कहा कि भारतीय मनीषा ने विज्ञान को कभी उस तरह अनादृत नहीं किया जिस तरह पश्चिम ने किया।  डॉ. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने लोभ और लाभ पर आधारित आधुनिकता के बोध को भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बताया। राजेंद्र प्रसाद पाण्डेय ने वैश्विकता की भारतीय भावना को वैश्वीकरण की आधुनिक लहर की तुलना में अधिक गरिमामय सिद्ध किया। इतिहास, परम्परा और आधुनिकता की अन्विति की लोक और शास्त्र में जो बहुविध अभिव्यक्ति हुई है उसे पाण्डेय जी ने प्रत्यक्ष किया।

मुख्य अतिथि डॉ. पृथ्वीश नाग, कुलपति, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ ने कहा कि आधुनिकता और परम्परा में सामंजस्य जरूरी है। नयी पीढ़ी आगे बढ़े, दुनिया में छा जाय और अत्यधुनिक सुविधाओं से लैस हो जाय लेकिन एकाकी जीवन जी रहे अपने बुजुर्गों को भी न भूले।

अपने अध्यक्षीय संबोधन में भारत-विद्या के पण्डित कमलेश दत्त त्रिपाठी ने तीनों दिन के विभिन्न सत्रों के विमर्श विन्दुओं का समाहार किया। उन्होंने कहा कि कोई भी विचार मात्र पुराना या नया या देशी या परेदशी होने से सही या गलत नहीं होता, मूल तत्व है सत्य जिसका संधान आवश्यक है।
डॉ. दयानिधि मिश्र, सचिव, विद्याश्री न्यास ने न्यास तथा हिन्दी विभाग की तरफ से पूरे आयोजन के अभ्यागत वक्ताओं, श्रोताओं, सहयोगियों के प्रति आभार प्रकट किया। इस सत्र का संचालन प्रकाश उदय ने किया। सभी अकादमिक सत्रोें में सत्रों के विषय से संबंधित पं. विद्यानिवास मिश्र के आलेखों का बीज वक्तव्य के रूप पाठ हुआ जिसे डॉ. सविता श्रीवास्तव, प्रकाश उदय, डॉ. अरुणेश नीरन ने सम्पन्न किया।

संगोष्ठी के पहले दिन की संध्या कवि-गोष्ठी के नाम रही जिसकी अध्यक्षता कवि गिरिधर करुण और संचालन श्रीकृष्ण तिवारी ने किया। कवि गोष्ठी में वशिष्ठ अनूप, हरिराम द्विवेदी, रविन्द्र उपाध्याय ‘कौशिश’, अंकिता, सौरभ सरोज, राम अवतार पाण्डेय, शिव कुमार पराग, अलकबीर, अशोक सिंह ‘घायल’, रंजना राय, वशिष्ठ मुनि ओझा, ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, अमर नाथ अमर, उद्भव मिश्र, प्रकाश उदय प्रभृति अनेक कवियों ने काव्य पाठ किया। संगोष्ठी के दूसरे दिन की संध्या पं. विद्यानिवास मिश्र पर डॉ. मुक्ता के वृत्तचित्र ‘छितवन की छाँह में’ की प्रस्तुति के साथ सम्पन्न हुई। सत्र के तीनों दिन के सभी अकादमिक सत्रों की सबसे बड़ी सफलता इनमें स्थानीय से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक देश के प्राय: सभी हिस्सों से आये प्रतिभागियों की भागीदारी रही। उल्लेखनीय है कि इस आयोजन में श्री शिवनाथ पाण्डेय के तीन उपन्यासों ‘स्वर्ग से नरक तक’, ‘दलदल’ तथा ‘अंधे की डायरी’ एवं डॉ. विश्वनाथ वर्मा की पुस्तक ‘प्राचीन भारत में विधवाओं के विविध परिवर्तनीय आयाम’ का लोकार्पण भी सम्पन्न हुआ।

आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान/लोककवि सम्मान

इस अवसर पर विद्याश्री न्यास द्वारा मूर्धन्य साहित्यकार निर्मल कुमार को उनकी रचना ‘ऋतुराज’ के लिए चतुर्थ आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान तथा प्रसिद्ध कवि गिरिधर करुण को लोककवि सम्मान से अंगवस्त्र, श्रीफल, रुद्राक्ष, माला, प्रशस्ति-पत्र, स्मृति-चिह्न के साथ पत्र-पुष्प सहित समादृत किया गया। आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति-सम्मान के अन्तर्गत रू. २१०००/- की राशि प्रदान की गई। भारतीय लेखक-शिविर की एक उपलब्धि के रूप में इस वर्ष का युवा प्रतिभा सम्मान सुश्री रचना सिंह को प्रदान किया गया।

काव्य/निबंध-प्रतियोगिता एवं पोस्टर-प्रदर्शनी

अन्तर्भारतीय युवा समवाय के अन्तर्गत काव्य-प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय, तृतीय पुरस्कार क्रमश: अभिनव अरुण, विनीता सिंह एवं विनायक (संयुक्त) तथा आस्था सिंह को, निबन्ध प्रतियोगिता में क्रमश: आलोक दीपक, सच्चिदानन्द देव पाण्डेय एवं प्रीति राय (संयुक्त) तथा रत्नेश कुमार मिश्र को तथा आलेख-पाठ प्रतियोगिता में क्रमश: विनीता सिंह, बिजुमणि कलिता एवं जिंटु कुमार डेका तथा शेखर ज्योतिशील एवं रानी देवी (संयुक्त) को दिया गया। कविता-पोस्टर प्रतियोगिता के लिए संभावना कला मंच, गाजीपुर के कलाकारों श्री राजकुमार सिंह और उनके साथियों को पुरस्कृत किया गया।

‘चिकितुषी’ का प्रकाशन

विद्याश्री न्यास की सांवत्सर पत्रिका चिकितुषी के छठे अंक का प्रकाशन किया गया।

संस्कृत कवि-गोष्ठी

१४ फरवरी को वाराणसी में प्रसिद्ध साहित्यकार एवं ‘साहित्य अमृत’ के संस्थापक पं. विद्यानिवास मिश्र की पुण्यतिथि पर विद्याश्री न्यास द्वारा भारतधर्म महामंडल, लहुराबीर के सभागार में एक संस्कृत कविगोष्ठी आयोजित की गई। मुख्य अतिथि पं. रेवाप्रसाद द्विवेदी थे व अध्यक्षता पं. शिवजी उपाध्याय ने की। शुभारंभ पं. विद्यानिवास मिश्र के चित्र पर माल्यार्पण एवं  डॉ. राममूर्ति चतुर्वेदी के वैदिक मंगलाचरण से हुआ। स्वागत एवं संचालन   डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पांडेय ने किया। युवाकवि डॉ. विजय कुमार पांडेय ने अपनी गीति-रचना ‘विद्यानिवास गुरुदेव नमोऽस्तु तुभ्यम्’ एवं डॉ. शिवराम शर्मा ने ‘विद्यानिवास विवुधाय नमांसि मे स्यु:’  के माध्यम से पंडित जी के प्रति अपनी काव्यांजलि प्रस्तुत की। डॉ. विवेक पांडेय ने ‘यदारोपितं पुरा बीजरूपेण सर्वं खलु सघन वनं जातम्’ एवं ‘रोद्धया अस्ति घूर्णयंती धरित्री’ जैसी काव्य-पंक्तियों से आधुनिक भावबोध का परिचय दिया। डॉ. पवनकुमार शास्त्री ने ‘दीपोस्मि’, ‘भवामि साक्षी’ आदि कई व्यंग्यपरक लघुकविताएँ सुनाई। डॉ. हरिप्रसाद अधिकारी ने ‘विश्वभाषा सदा वर्धतां भूतले’ की कामना की।  डॉ. कमला पांडेय ने चुनावी माहौल को ध्यान में रखते हुए मतदाताओं से चुप्पी तोड़ने को कहा- ‘कथं देयं मतं नेत:’। डॉ. धर्मदत्त चतुर्वेदी ने भी चुनाव के संदर्भ में कई काव्य-चुटकियाँ लीं। डॉ. गायत्री प्रसाद पांडेय ने ‘वेलेंटाइन डे’ को अपनी कविता के निशाने पर लिया। डॉ. उपेन्द्र पाण्डेय ने ‘हुतात्माष्टकम्’ तथा पं. सदाशिव द्विवदी ने ‘शमायात: काल:’ शीर्षक कविता का पाठ किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने ‘प्राप्त: स शुक्लाक्षत भावमव्ययम्’ कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: यथार्थवेत्ता च निरन्ता कर्मा’ कविता का प्रभावी पाठ किया। सर्वश्री कमला पांडेय, धर्मदत्त द्विवेदी, उपेन्द्र पांडेय तथा सदाशिव द्विवेदी ने भी प्रभावी काव्य-पाठ किया। समारोह में सर्वश्री श्रीकृष्ण तिवारी, जितेन्द्र नाथ मिश्र, रामनाथ त्रिपाठी, प्यारेलाल पांडेय, अरविंद पांडेय, अरविंद त्रिपाठी, वशिष्ठ त्रिपाठी, सत्येन्द्र, ध्रुव पांडेय, प्रकाश उदय आदि उपस्थित थे।

पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति व्याख्यान

महामना मालवीय संस्कृति न्यास द्वारा संकल्पित पत्रिका ‘संस्कृति-विमर्श’ के प्रवेशांक की विषयवस्तु ‘संस्कृति और धर्म’ पर पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति व्याख्यान एवं परिचर्चा का आयोजन विद्याश्री न्यास एवं महामना मालवीय संस्कृति न्यास के संयुक्त तत्वावधान में २ सितम्बर २०१२ को कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन, रथयात्रा, वाराणसी में दो सत्रों में सम्पन्न हुआ।

पहले सत्र में स्वागत-भाषण के साथ ही विषय-प्रवर्तन करते हुए श्री अच्युतानन्द मिश्र ने समकालीन भारतीय सन्दर्भ में तीन राष्ट्रीय स्तर के संकटों को रेखांकित किया- विचारधारा, आदर्श और ईमानदार नेतृत्व के संकट के रूप में। उन्होंने धर्म और संस्कृति की भारतीय अवधारणा में इन संकटों से उबरने और उबारने की शक्ति की तरफ भी इंगित किया। मुख्य वक्ता सागर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोपेâसर श्री अम्बिकादत्त शर्मा ने भारतीय संस्कृति के सामाजिक या बहुलतावादी होने के बजाय एकात्मक होने पर जोर दिया। उनके अनुसार आजादी के बाद यहाँ राजनीतिक एकीकरण का तो प्रयास किया गया, सांस्कृतिक एकीकरण के प्रति उदासीनता ही दिखी। उन्होंने बौद्ध मत, जैन मत आदि को सनातन धर्म-संस्कृति के विस्तार के रूप में न कि विरोध के रूप में देखने पर बल दिया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में भारत विधा के पण्डित श्री कमलेश दत्त त्रिपाठी ने संस्कृति और कल्चर तथा धर्म और रिलिजन के पार्थक्य को स्पष्ट करते हुए भारतीय सन्दर्भ में उनकी विशद और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने हमारी धर्म-संस्कृति को लोक और शास्त्र दोनों किनारों से मर्यादित एक प्रबल प्रवाह के रूप में रेखांकित किया। इस प्रवाह में, उनके अनुसार, अपने सूफी मिजाज के साथ इस्लाम भी शामिल है। परिचर्चा में भाग लेते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, डॉ. अनिल त्रिपाठी, श्री आशुतोष शुक्ल आदि ने अपने विचारों से इस सत्र की सार्थकता बढ़ा दी।

दूसरे सत्र का विषय था ‘युवा पीढ़ी और धर्म’। मुख्य वक्ता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोपेâसर श्री आनन्द मिश्र ने धर्म एवं संस्कृति संबंधी भारतीय वैचारिकी की सुदीर्घ परम्परा का विशद विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने सत्य और असत्य के विभेद के विवेक को ही धर्म की भारतीय अवधारणा का मूल मानते हुए युवा पीढ़ी में इसी चेतना की जरूरत बताई। अध्यक्षीय वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. अवधेश प्रधान ने धर्म के सत्य स्वरूप को युवा पीढ़ी के सर्वाधिक नजदीक लाने वाले विवेकानन्द को याद किया। उन्होंने विज्ञान से अधीत, उसके स्वागत के लिए सदा तत्पर धर्म-सम्बन्धी चिंतन के सर्वसमावेशी चरित्र को बेहद सतर्वâता और ओजस्विता के साथ प्रस्तुत किया। इस क्रम में उन्होंने दोनों सत्रों में उठे विभिन्न प्रश्नों के उत्तर भी दिए और धर्म के नाम पर व्याप्त प्रकट-अप्रकट पाखण्डों पर भी जोरदार प्रहार किए। इस सत्र में सर्वश्री रमेश कुमार द्विवेदी, चन्द्रकला त्रिपाठी, अवधेश दीक्षित, चन्द्रकान्ता राय, यदुनाथ दूबे, श्रीनिवास पाण्डेय, विश्वनाथ कुमार ने भी अपने विचार प्रकट किए। व्याख्यान के दोनों सत्रों में सर्वश्री जितेंद्र नाथ मिश्र, श्रद्धानन्द, अनिल भाष्कर, पवन कुमार शास्त्री, रामसुधार सिंह, हरेराम त्रिपाठी, नरेन्द्रनाथ मिश्र, रामबख्श  मिश्र, बलबीर सिंह, डॉ. उदय प्रताप सिंह, शशिकला पाण्डेय, विश्वनाथ वर्मा, आशुतोष द्विवेदी, बब्बन प्रसाद सिंह जैसे विद्वानों, रचनाकारों और बी.एच.यू., काशी विद्यापीठ, हरिश्चन्द्र कॉलेज, यू.पी. कॉलेज एवं श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज के शोध छात्रों की उपस्थिति ने इस आयोजन की गरिमा में श्रीवृद्धि की।
इस व्याख्यान और परिचर्चा की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने धन्यवाद ज्ञापित किया। दोनों सत्रों का संचालन क्रमश: डॉ. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी एवं प्रकाश उदय ने किया।

जिज्ञासा : साहित्य-संवाद की नई शृंखला

‘‘दक्षिण भारत का हिन्दी-विरोध विशुद्ध रूप से राजनीतिक है, जमीनी सचाई से उसका कोई वास्ता नहीं’’- यह बात चेन्नई से पधारे हिन्दी-विद्वान डॉ. एन.सुन्दरम ने ‘गाँधी जी की भाषा-दृष्टि’ विषय पर आयोजित विचार-गोष्ठी ‘जिज्ञासा’ में कही। ‘जिज्ञासा’ नाम से विचार-गोष्ठियों की एक शृंखला पं. विद्यानिवास मिश्र ने शुरू की थी, जिसे विद्याश्री न्यास ने पुन: आरम्भ किया है। ‘जिज्ञासा की इस दूसरी शुरुआत की यह पहली गोष्ठी न्यायमूर्ति गणेशदत्त दूबे की अध्यक्षता में वरूणापार ‘विद्याश्री’ में संपन्न हुई। आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने बताया कि गाँधीजी ने किस तरह हिन्दी के सवाल को करोड़ों भारतीयों की स्वतंत्रता के सवाल से जोड़ दिया। उन्होंने जोहान्सवर्ग में हाल ही में सम्पन्न हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि हिन्दी का सम्मान तभी संभव है जब हम अपनी और औरों की भी मातृभाषा का सम्मान करें।                          डॉ. एन.सुन्दरम् तथा डॉ. पी.के. बालसुब्रह्मण्यम ने दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार के लिए दक्षिण भारतीयों को ही तैयार करने की, इसके लिए उन्हीं से संसाधन जुटाने की नीति को गाँधीजी की दूरदर्शिता के रूप में रेखांकित किया। दक्षिण भारतीय हिन्दी अध्यापिका श्रीमती सुलोचना ने अपने अध्यापकीय अनुभवों को प्रस्तुत किया। डॉ. वाचस्पति ने इन दक्षिण भारतीय विद्वानों की हिन्दी-सेवा से परिचित कराया तथा अध्यक्ष श्री गणेश दत्त दूबे ने उत्तरीय से इन सभी का सम्मान किया। परिचर्चा में भाग लेते हुए प्रो. श्रद्धानन्द ने हिन्दी-प्रसार के भाषा वैज्ञानिक आयामों का विवेचन किया। डॉ. वशिष्ठ अनूप तथा डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र ने ऐसे आयोजनों के महत्व को रेखांकित करते हुए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए। डॉ. उदय प्रताप सिंह ने भाषा-अध्ययन की दृष्टि से दक्षिण भारत की यात्रा का प्रस्ताव रखा। वशिष्ठ मुनि ओझा ने ऐसी यात्राओं की सफलता के लिए दक्षिण भारतीय भाषाएँ सीखने की जरूरत पर बल दिया। डॉ. शशिकला पाण्डेय ने हिन्दी के सर्वग्राही चरित्र को उसकी शक्ति बताते हुए दूसरी भाषाओं के गैर जरूरी शब्दों के जबर्दस्ती इस्तेमाल की प्रवृत्ति को घातक बताया। कवि-गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने अपनी लन्दन-यात्रा के अनुभवों से बताया कि वहाँ विभिन्न प्रांतों के भारतीय संपर्वâ भाषा के रूप में हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। गोष्ठी को श्रीकृष्ण तिवारी और डॉ. अशोक सिंह के काव्य-पाठ ने जीवन्त बना दिया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में न्यायमूर्ति गणेशदत्त दूबे ने स्पष्ट किया कि संकट सिर्पâ हिन्दी के सामने नहीं है, भाषामात्र के सामने है। भाषा सीखने-सिखाने के प्रति एक अरुचि का वातावरण है। डॉ. मुक्ता, डॉ. नरेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ. रमेश कुमार द्विवेदी, डॉ. पवन कुमार शास्त्री, डॉ. सविता श्रीवास्तव, डॉ. रवीन्द्रनाथ दीक्षित आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

अतिथियों का स्वागत करते हुए विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने ‘जिज्ञासा’ के स्वरूप और उसकी भावी योजनाओं को भी स्पष्ट किया। कार्यक्रम का संचालन प्रकाश उदय ने और धन्यवाद-ज्ञापन डॉ. रामसुधार सिंह ने किया।