गतिविधि २०१०

भारतीय लेखक-शिविर एवम्
‘भाषा, शिक्षा एवं संस्कृति’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
(१४-१६ जनवरी, २०१०)

पण्डित विद्यानिवास मिश्र के विचार-चिन्तन के विभिन्न आयामों में भाषा, शिक्षा और संस्कृति प्रमुख हैं। उनकी स्मृति में उनके जन्मदिवस पर आयोजित होने वाले भारतीय लेखक-शिविर में अबकी बार इन्हें ही विमर्श के विषय के रूप में रखा गया। रथयात्रा, काशी में स्थित कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन में १४, १५ एवं १६ जनवरी को भारतीय लेखक-शिविर एवं राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारत के विभिन्न प्रान्तों से पधारे विद्वानों, प्रतिभागियों ने भाषा, शिक्षा और संस्कृति के विभिन्न आयामों पर पण्डित विद्यानिवास मिश्र के एतद्विषयक चिन्तन के आलोक में अपने महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए। महत्त्वपूर्ण है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के अध्यापकों-विद्यार्थियों ने इस संगोष्ठी में भागीदारी की और साहित्यकारों की नई-पुरानी पीढ़ी के साथ साक्षात् और संवाद का लाभ उठाया। इस क्रम में छात्रों-शोधार्थियों के प्रोत्साहन हेतु निबन्ध एवं काव्य-प्रतियोगिता भी आयोजित की गई। सांस्कृतिक संध्याओं के आयोजन ने इस कार्यक्रम को बहुरंगी छवि प्रदान की।

१४ जनवरी २०१०

उद्घाटन-सत्र
पूर्वाह्न १० बजे आरंभ हुए उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि थे सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री रमेश चन्द्र शाह। इस समारोह की अध्यक्षता पं. वेणी माधव शुक्ल (पूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय) ने की। संचालन किया विश्व भोजपुरी सम्मेलन के अन्तरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. अरुणेन नीरन ने। डॉ. महेश्वर मिश्र (अध्यक्ष, विद्याश्री न्यास) ने अतिथियों का स्वागत किया।
इस सत्र में प्रमुख रूप से शिरकत करने वालों में श्री गोविन्द राजन, श्रीमती भारती गोरे, श्री शंकर लाल पुरोहित, माणिक गोविन्द चतुर्वेदी, श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, प्रो. मंजुला चतुर्वेदी, श्री रामाश्रय राय, श्री रामानंद त्रिपाठी, श्री राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, प्रो. राजीव द्विवेदी, प्रो. श्रद्धानन्द, डॉ. श्रीप्रकाश शुक्ल, डॉ. मुक्ता, प्रो. काशीनाथ सिंह, प्रो. शिवजी उपाध्याय, श्री रमेश कुमार द्विवेदी आदि ने पंडित जी की स्मृति से जुड़े अपने रोचक संस्मरण सुनाये। मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए श्री रमेश चन्द्र शाह ने पंडित जी के व्यक्तित्व को उस प्रज्ञा का प्रतीक बताया जो विरोधियों को भी साथ लेकर चलने को संकल्पित था। साथ ही उन्होंने पंडित जी की भाषा-साहित्य की मर्मज्ञता, जीवन दृष्टि तथा समाज-चेतना पर भी प्रकाश डाला। प्रो. वेणी माधव शुक्ल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पंडित जी के बचपन के चुलबुले संस्मरण सुनाए और कहा कि भारत ज्ञान के बल पर ही अपनी प्राचीन महिमा को प्राप्त करेगा जिसमें पंडित विद्यानिवास मिश्र जैसे मनीषियों की आहुति सर्वोच्च होगी।

प्रथम सत्र : शिक्षा की भारतीय अवधारणा : परम्परा और प्रयोग
१४ जनवरी को आरंभ हुए प्रथम सत्र में उक्त विषय पर विशद चर्चा हुई। इस सत्र का संचालन श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने किया। सत्र के अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ. कृष्ण दत्त पालीवाल ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में उपनिषदवादी व साम्राज्यवादी तथा मैकाले की नीतियों के तहत हुई क्षतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि आज भी हम पश्चिमी प्रतिमानों का ही पालन कर रहे हैं। प्रो. हरिकेश सिंह ने कहा कि भारतीय शिक्षा की परम्परा और उसके प्रयोग में ‘संस्कारों से युक्त व्यक्तित्व’ और ‘सुसंस्कृत व्यक्ति’ को ही मूल बोध के रूप में समझना होगा। परम्परा की पहचान में आज भी विनय, करुणा, शील, प्रज्ञा एवं अहिंसा आधारित संस्कृति की ओर ही देखना होगा। इसी क्रम में डॉ. रामसुधार सिंह ने शिक्षा को व्यक्तित्व के रुपान्तरण का माध्यम माना। उनके अनुसार विद्या की चार प्रक्रियाएँ- अध्ययन, मनन, प्रवचन और प्रयोग हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि शिक्षा व्यक्ति के संस्कार और परिष्कार से जुड़ी है न कि सूचना के संकलन से। शिक्षा मनुष्य को समग्रता की ओर ले जाती है और नए विकल्प के अवसर प्रदान करती है। यह प्रवाह सर्जनात्मकता को पुष्ट करता है। शंकर शरण श्रीवास्तन ने भारतीय स्व और भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा की आवश्यकता बतायी। श्रीमती बेन्नी पासाह ने शिक्षा को भावी जीवन की तैयारी मात्र नहीं बल्कि जीवन-यापन की प्रक्रिया बताया। डॉ. अरविन्द झा ने भारतीय जीवन में शिक्षा की प्रक्रिया को एक ऐसी साधना बताया जिसमें ज्ञान का विस्तार आत्मा के स्वरूप की खोज के साथ जुड़ा था और ब्रह्म के साथ उसका तादात्म्य होता था। सुशील कुमार शर्मा ने आज के परिवेश में भारतीय शिक्षा को अर्थमूलक मात्र बताया। डॉ. विश्वनाथ वर्मा के अनुसार आज की शिक्षा नैतिक मूल्यों पर आधारित न होकर जीविकोपार्जन का साधन मात्र रह गई है। संतोष कुमार व शशिकला पाण्डेय ने शिक्षा में कम्प्यूटर जैसी नई तकनीक के महत्त्व की चर्चा की। भारतीय शिक्षा की अवधारणा : परम्परा और प्रयोग विषय पर बोलते हुए शशिकला पाण्डेय ने कहा कि भारतीय शिक्षा की दो परम्पराएँ थीं एक गुरुकुल की परम्परा और दूसरी पारंपरिक व्यावसायिक शिक्षा। दोनों ही परम्परावाली शिक्षा मानव को पूर्ण मानव बनाने के साथ ही आजीविका से भी जोड़ने वाली और समाज को सुदृढ़ बनाने वाली थी किन्तु दीर्घकालीन परतन्त्रता के कारण शिक्षा की वह सुदृढ़ परम्परा शोध और नवीनीकरण के अभाव में कमजोर होती गयी, अंग्रेजी की वूâटनीतिक चाल के सामने वह व्यवस्था चरमरा उठी। स्वतंत्रता-संघर्ष के समय स्वतंत्रता सेनानियों ने इस चाल को पहचाना था और इसीलिए गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा की अवधारणा प्रस्तुत की थी जो प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाई।
इस क्रम में प्रो. हरिकेश सिंह ने कहा कि भारतीय शिक्षा की परम्परा और इसके प्रयोग पर विचार करते समय यह स्पष्टत: समझना होगा कि भारत में शिक्षा, भाषा और संस्कृति तीन अलग-अलग अवधारणाएँ नहीं हैं भारत में शिक्षा का अभिप्राय शील-निर्माण के साथ सर्वमयता का भाव एवं संकल्प बनाना होता था और अब भी यदि परम्परा की पहचान बनानी हो तो विनय, करुणा, शील, प्रज्ञा एवं अहिंसा आधारित संस्कृति के निर्माण में मानव जाति को सदैव भारतीय शैक्षिक परम्परा की ओर ही देखना होगा।
डॉ. कृष्ण दत्त पालीवालने अपने व्याख्यान में कहा कि- भारतीय शिक्षा व्यवस्था के ढाँचे को पूरी तरह औपनिवेशिक गुलामी ने ध्वस्त किया। नीति बनाकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने भारत की शिक्षा-परम्परा में परिवर्तन किए। मैकाले की नीतियों ने संस्कृत विद्यालयों और संस्कृत को नष्ट किया। औपनिवेशिक गुलामी ने शिक्षा को नए प्रतिवूâल प्रतिमान दिए और उसी तर्ज पर हम चले जा रहे हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि हम पश्चिम के पीछे चल पड़े हैं और शिक्षा का नव साम्राज्यवाद स्थापित हो रहा है।

द्वितीय सत्र : शिक्षा की चुनौतियाँ
१४ जनवरी को उक्त विषय पर हुई परिचर्चा का संयोजन/संचालन किया प्रो. चितरंजन मिश्र ने। इस सत्र में बोलते हुए डॉ. वागीश शुक्ल ने कहा कि शिक्षा-प्रणाली आज विसंगतियों और अनिर्णय की स्थिति से जूझ रही है इसमें सुधार तभी संभव है जब समाज स्वयं चेते। इसी क्रम में डॉ. वीणा पाठक ने कहा कि हम संस्कृति से हट कर सर्वांगीण विकास नहीं कर सकते हमारी शिक्षा संस्कृतिपरक होनी चाहिए। डॉ. राजेन्द्र शरण शाही ने कहा कि आज हमारे देश में नामांकन दर लगभग ११ प्रतिशत है जो अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है उन्होंने बताया कि यही नामांकन प्रतिशत विकसित देशों में ५२ प्रतिशत है। उन्होंने शिक्षा के पिछड़ेपन का हवाला देते हुए कहा कि इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सरकार शिक्षा पर बहुत कम व्यय करती है। अगले वक्ता के रूप में नरेश प्रसाद भोक्ता ने कहा कि शिक्षा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली प्रक्रिया है जो अनवरत समाज को नई दिशा देती है। पूर्वोत्तर की हरप्यारी देवी ने आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा कि आज शिक्षकों द्वारा शिक्षा को रोजगारपरक अवसर समझना, शिक्षा-पद्धति की अनदेखी करना हमारी गिरते शिक्षा-स्तर के दोषी हैं, उन्होंने कहा कि शिक्षा हमें जीने की कला सिखाती है और समाज को नई दिशा देती है। अंतत: अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने शिक्षा-प्रणाली की विसंगतियों पर गहरी चिन्ता व्यक्त की, किन्तु सुधार के प्रति आश्वस्त भी किया। इस अवसर पर उमा देवी, शाइनी के. संगमा, सावंत राज दकाल आदि ने भी अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किए।

कवि-गोष्ठी
१४ जनवरी को सायं हरिराम द्विवेदी के संयोजन में कवि-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस कवि-गोष्ठी की अध्यक्षता वयोवृद्ध कवि श्री रामनवल मिश्र ने की तथा संचालन ख्यातिलब्ध गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने किया। कविगोष्ठी का आरंभ हरिराम द्विवेदी द्वारा प्रस्तुत सरस्वती-वन्दना से हुआ। ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने ‘‘काश कोई ऐसा जहाँ होता, जिस जगह अपना आशियाँ होता’’ सुनाया। हिमांशु उपाध्याय ने ‘‘देख रहा हूूँ भटकी हुई भँवर तुम्हारी आँखों में’’ सुनाकर वाहवाही लूटी। डॉ. अरुणेश नीरन की कविता- ‘बरसात दीवाली की’ और ‘नववर्ष की पूर्व संख्या पर’ को लोगों ने खूब सराहा। प्रो. मूलचन्द मानव ने सुनाया- ‘अंधेरे दूर होते है, उजाले पास होते हैं। हमारे बीच में जब आपसी विश्वास होते हैं’। भूषण त्यागी ने गीत सुनाया- ‘हैं स्वयं से शिकायत यही रात दिन कुछ लिखा क्यूं नहीं जिन्दगी के लिए/देवता के लिए ग्रन्थ रचता रहा कुछ लिखा क्यों नहीं आदमी के लिए।’ पं. श्रीकृष्ण तिवारी की कविता- ‘‘नींद नहीं आती’’ लोगों को खूब पसंद आयी। डॉ. अशोक सिंह ने अपनी ताजा गीत-रचनाएँ सुनाई। डॉ. प्रकाश उदय ने भोजपुरी गीत सुनाए। वयोवृद्ध कवि पं. रामनवल मिश्र ने कृष्ण-राधा प्रसंग सुनाकर लोगों को मंत्र मुग्ध कर दिया। इस कवि-गोष्ठी में शिरकत करने वालों में डॉ. अनंत मिश्र, डॉ. एम. गोविन्दराजन, सुरेश अकेला, डॉ. माधवेन्द्र पाण्डेय, सुरेन्द्र बेकहल, योगेन्द्र नारायण वियोगी, सुन्दरश्याम, परमानन्द आनंद, विनय कपूर, श्रीमती रचना राय, डॉ. अशोक मिश्र, ओमलता साख्य, श्रीमती विद्यावती देवी, डॉ. जोरम आनिया ताना, सुश्री उमा देवी, श्रीमती सिल्वी पासाह, राम गोपाल सर्राफ, संतोष कुमार, डॉ. सुशील कुमार शर्मा, प्रो. योगेश्वर कौर, साइनी के सांगमा, विनीता अकोइज्म, अमित कुमार, सुश्री हरि प्यारी देवी आदि रहे।
इस अवसर पर अतिथियों को स्मृति-चिन्ह एवं अंगवस्त्रम प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया गया।

१५ जनवरी २०१०

तृतीय सत्र : भारतीय भाषाएँ एवं बोलियाँ
१५ जनवरी को प्रात: १० बजे से आरंभ हुए प्रथम सत्र की अध्यक्षता की श्री माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने। इस सत्र के प्रमुख वक्ता विश्व भोजपुरी-सम्मेलन के अन्तरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. अरुणेश नीरन ने भाषा एवं बोलियों के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए कहा कि भाषा और बोली में व्युत्पत्ति की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है लेकिन भाषा में दार्शनिक बोलता है जब कि बोली में सन्त गाता है। उन्होंने सभी भारतीय बोलियों के लोक साहित्य में निहित प्रतिरोध की शक्ति को रेखांकित किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने भाषा को आधार बनाकर भारत और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध अंग्रेजों के गम्भीर षडयन्त्रों को उजागर करते हुए भाषाओं और बोलियों के अन्तर्संबन्धों को स्पष्ट किया। प्रभाकर मिश्र ने बोलियों की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए बोलियों के विकास को सम्भव बताया। डॉ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी ने भाषा को गंगा और बोलियों को सहस्त्रधारा के रुप में परिभाषित करते हुए दोनों को एक दूसरे के लिए जरूरी बताया। डॉ. राम बख्श मिश्र ने हिन्दी और भोजपुरी के सन्दर्भ में भाषा और बोली के पारस्परिक सम्बन्धों के विविध आयामों को प्रकट किया। डॉ. मधुधवन ने कहा कि दक्षिण और उत्तर भारत को मिलकर भाषा और बोली को विकसित करना होगा। मिलन रानी जमातिया ने विलुप्त होती भाषाओं को बचाने का विचार दिया। जोरम आनियसा ताना ने लिपियों की भिन्नता के कारण नष्ट          हो रही भाषा पर चिन्ता जताते हुए कहा कि लिपि-विहीन होने के कारण लोकसाहित्य नष्ट हो रहा है। उन्होंने बताया कि अरुणांचल प्रदेश में ११० जनजातियाँ हैं जिनकी सम्पर्वâ-भाषा हिन्दी को रखा गया है। पूर्वोत्तर में हिन्दी के समर्थन में हुए आन्दोलन की भी उन्होंने चर्चा की। प्रभाकर मिश्र ने कहा कि बोली के समृद्ध होने से भाषा कमजोर नहीं होगी, इसलिए हमें अपनी बोलियों को समृद्ध करने की ओर ध्यान देना चाहिए। अरुणाचल से आयी सोनम जी ने कहा कि देश का अस्तित्व अपनी भाषा से है न कि अन्य भाषाओं से। हिन्दी दुनिया भर में बोली जाने वाली विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। उन्होंने खेदपूर्वक कहा कि आज हिन्दी शब्दावली की विस्तारवादी अवधारणा के बावजूद हम रोमन भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और हिन्दी का गला घोटते जा रहे हैं। इसी क्रम में डॉ. रामबख्श मिश्र ने हिन्दी और भोजपुरी के सन्दर्भ में भाषा और बोली के पारस्परिक रिश्तों के विविधि आयामों को प्रकट किया। अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ. माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने कहा कि हिन्दी स्वयं में अत्यंत समृद्ध एवं विस्तृत भाषा है। उन्होंने हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय पहचान को रेखांकित किया और हिन्दी की बोलियों के साथ ही हिन्दी और उर्दू के रिश्तों पर विमर्श प्रस्तुत किया। इस सत्र में पूर्वोत्तर भारत से आए विभिन्न प्रदेशों के प्रतिभागियों ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किए जिनमें मिलन जमातिया, एस रिपुप्यारी देवी, मधु धवन आदि मुख्य थे। इस सत्र का संयोजन/संचालन म.गां. काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभाग के प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने अपने चुटीले अंदाज में किया।

चतुर्थ सत्र : भारत में हिन्दी
१५ जनवरी का द्वितीय सत्र अपराह्न १ बजे से आयोजित हुआ। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तथा संचालन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने किया। इस सत्र में भाग लेने वाले विद्वानों में देश के विभिन्न प्रान्तों में हिन्दी की स्थिति पर प्रकाश डालने के क्रम में प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय ने पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी-सम्बन्धी चेतना के लम्बे इतिहास को प्रस्तुत किया। प्रो. दिलीप सिंह ने दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्य के अनुवाद और हिन्दी शिक्षण, शोध आदि के सन्दर्भ में विभिन्न संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला। श्री एम. गोविन्द राजम ने प्रमाणित किया कि वैâसे हिन्दी उत्तर भारत के लोगों के मुँह में है, लेकिन दिल में नहीं है जबकि दक्षिण भारतीयों के मुँह में भले हिन्दी नहीं है, दिल में जरूर है। डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी ने बताया कि महाराष्ट्र में अपनी भाषा-संस्कृति की निजता को बचाए रखने की चिन्ता तो जरूर है, लेकिन हिन्दी का विरोध नहीं है। उन्होंने मुम्बई में मुम्बइया हिन्दी के रूप में विकसित हिन्दी को हिन्दी के अधिक भारतीय विस्तार के रुप में चिह्नित किया। शंकर लाल पुरोहित ने उड़ीसा और बंगाल में हिन्दी के विकास और विस्तार के लिए किए गये कार्यों पर प्रकाश डाला तथा हिन्दी के विकास के प्रति अपना विश्वास प्रकट किया। प्रो. सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने अंग्रेजी के प्रति ललक को गुलाम मानसिकता से जोड़ते हुए हिन्दी के विकास के सन्दर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। डॉ. रीता रानी पालीवाल ने कहा कि हमारे अनुवादजीवी भाषा में बोलने से हिन्दी को खतरा पैदा हो रहा है। लिली खार प्राण ने बताया कि हिन्दी में अद्भुत सम्प्रेषणीयता है। पूâलचन्द मानव ने हिन्दी साहित्य में पंजाब के योगदान का उल्लेख किया। डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रत्येक भाषा की निजता और उसके अस्तित्व की रक्षा की अपेक्षा बताई। उन्होंने हिन्दी की व्यापकता और विविधता को उसकी शान बताया।

सांस्कृतिक-कार्यक्रम
१५ जनवरी को पंडित विद्यानिवास मिश्र-रचित रेडियो रूपक ‘गार्गी वाचक्नवी’ का सफल मंचन श्री एन.के. आचार्य की टीम द्वारा प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही पूर्वोत्तर की प्रतिभागियों ने बिहू एवं मणिपुरी नृत्य प्रस्तुत किया। इसी क्रम में सविता सोनी द्वारा शास्त्रीय संगीत एवं गजलों की प्रस्तुति की गई।

१६ जनवरी २०१०

पंचम सत्र : भारतीय संस्कृति – इतिहास और भविष्य
१६ जनवरी को प्रात: १० बजे से आहूत प्रथम सत्र में ‘‘भारतीय संस्कृति- इतिहास और भविष्य’’ विषय पर परिचर्चा हुई। इस सत्र की अध्यक्षता श्री रामाश्रय राय ने की तथा संचालन प्रो. बलराज पाण्डेन ने किया। सत्र के प्रमुख वक्ता रमेश चन्द्र शाह ने कहा कि भारत की संस्कृति को समझना होगा। जो व्यक्ति अपने अतीत को नहीं देखता, वह अपने भविष्य को भी नहीं सँवार सकता। डॉ. भारती गोरे ने महाराष्ट्र की संस्कृति, कला व साहित्य आदि का उल्लेख करते हुए भारतीय संस्कृति में उसके योगदान को रेखांकित किया। श्रुति पाण्डेय को लगा कि पूर्वोत्तर राज्यों की समृद्ध संस्कृति को यथोचित महत्त्व नहीं दिया गया। प्रो. अवधेश प्रधान ने कहा कि यदि विश्व को संस्कृति का उत्कर्ष चाहिए तो उसे भारत की ओर देखना होगा। कृष्ण दत्त पालीवाल ने भारतीय संस्कृति के निर्माण में कविता का विशेष महत्त्व स्वीकारा तथा भाषा को ही संस्कृति माना। वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता की चर्चा की जो हर जगह से कुछ न कुछ लेकर आगे बढ़ती है। पं. श्री कृष्ण तिवारी ने गीत के माध्यम से संस्कृति पर कुठाराघात करने वाली शक्तियों पर करारा प्रहार किया। श्रीमती प्रतिभा मिश्र ने दूसरों के तर्वâ को सुनने और समझने पर जोर दिया, ताकि उनकी संस्कृति को समझा जा सके। रामाश्रय राय ने बताया कि अंग्रेजों के शासन में आये विदेशी तत्त्वों से विचारों के परिवर्तन की प्रक्रिया चल पड़ी जिसने भारतीय संस्कृति के विघटन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उन्होंने इन परिवर्तनों से छुटकारा पाने में ही भारतीय संस्कृति का भविष्य देखा। श्री माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने कहा कि प्रत्येक बालक में सीखने की प्रवृत्ति होती है और यदि हम घर में अच्छी भाषा का प्रयोग करते हैं तो निश्चित ही वह भाषिक संस्कृति से परिचित होगा। आज सामाजिकता के लोप का सबसे बड़ा कारण है शिक्षकों का स्वतंत्र न होना। उन्होंने कहा कि सब कुछ परिवर्तनशील है, संस्कृति बहता जल है और वह भी भाषा की दिशा में ही