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गतिविधिया
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गतिविधि २०१२
भारतीय लेखक-शिविर एवं इतिहास, परम्परा एवं आधुनिकता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
पण्डित विद्यानिवास मिश्र की स्मृति में उनके जन्मदिवस (१४ जनवरी) पर उनकी वेंâद्रीय कर्मभूमि वाराणसी में प्रतिवर्ष आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों के अन्तर्गत इस वर्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से हिन्दी विभाग, श्री बलदेव पी.जी.कॉलेज, बड़ागाँव, वाराणसी एवं विद्याश्री न्यास के संयुक्त तत्वावधान में इतिहास, परम्परा, आधुनिकता और रचनाकर्म पर त्रिदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं चतुर्थ भारतीय लेखक-शिविर (१४-१६ जनवरी, २०१२) कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन, रथयात्रा एवं श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव, वाराणसी के सभागार में आयोजित किया गया।
समारोह का भव्य शुभारंभ मुख्य अतिथि श्री त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी, पूर्व राज्यपाल, कर्नाटक एवं अध्यक्ष श्री रामचन्द्र खान, पूर्व पुलिस महानिरीक्षक, बिहार के हाथों दीप-प्रज्ज्वलन और माँ सरस्वती तथा पं. विद्यानिवास मिश्र के चित्र के पुष्पार्चन से हुआ। इस अवसर पर श्री चतुर्वेदी ने अपने वक्तव्य में कहा कि पण्डित जी की विद्वत्ता के अनेक आयाम हैं और उन सबको एक साथ साधे रहने वाला उनका एक सहज, संवेदनशील, गँवई व्यक्तित्व था। वे एक पूरे मनुष्य थे और किसी भी शब्द, किसी भी अवधारणा को वे उसके पूरेपन में परखते थे। अपने अध्यक्षीय संबोधन में श्री रामचंद्र खान ने बताया कि पंडित जी के व्यक्तित्व में, उनकी उपस्थिति मात्र में वह जीवंतता थी जो औरों को भी जीवन्त कर देती थी। पंडित जी ललित निबंधकार मात्र नहीं हैं वे जटिल से जटिल विचारों और अवधारणाओं तक हमारी पहुँच बनाते हैं। वे भारत विद्या के पंडित हैं, उन्हें भारत-भाव की प्रखर पहचान भी है और उन्हें जानने-समझने का एक मतलब अपने भारत को भी जानना-समझना है।
स्मृति-संवाद के क्रम में डॉ. ब्रजविलास श्रीवास्तव ने बताया कि वैâसे अपने कुलपति के कार्यकाल में पंडित जी की निर्भीकता ने एक बार मरने-मारने पर उतारू छात्रनेताओं से मेरी जान बचाई। यह पता चलते ही कि प्राक्टर को घेर लिया गया है, पंडित जी खड़ाऊँ पर ही अकेले दौड़े चले आए और उनकी उपस्थिति मात्र ने, उनकी एक डपट ने ही उन छात्रों को तितर-बितर कर दिया। प्रो. मंजुला चतुर्वेदी, प्रो. ऋता शुक्ल, डॉ. शशिकला पाण्डेय, डॉ. मुक्ता, प्रो. रामबख्श मिश्र और श्री प्रसाद जी ने पंडित जी से जुड़ी अपनी स्मृतियों को ताजा किया, उन्हें श्रोताओं के साथ साझा किया।
उद्घाटन सत्र को श्री जयेंद्रपति त्रिपाठी और डॉ. उमापति दीक्षित के वैदिक और पौराणिक मंगलाचरण से एक गरिमापूर्ण आरंभ मिला। स्वागत न्यास के संस्थापक पं. महेश्वर मिश्र ने किया। डॉ. दयानिधि मिश्र, सचिव, विद्याश्री न्यास एवं डॉ. उदयन मिश्र, प्राचार्य, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव ने सभी अतिथियों का उत्तरीय से स्वागत-सम्मान किया। न्यास का परिचय एवं विषय प्रस्तावना सत्र के संयोजक डॉ. अरुणेश नीरन ने प्रस्तुत की।
अकादमिक सत्रों की शुरुआत कथाकार निर्मल कुमार के बीज वक्तव्य ‘इतिहास, परम्परा और आधुनिकता : अन्त: संबंध’ से हुई। इसमें उन्होंने तनखैया इतिहासकारों के इतिहास-लेखन की परम्परा को घातक सिद्ध करते हुए भारतीय इतिहास-बोध और परम्परा तथा आधुनिकता की भारतीय समझ के विविध आयामों को आगे के सत्रों में विमर्श के लिए प्रस्तावित किया। दूसरे सत्र में ‘इतिहास बोध : भारतीय अवधारणा’ के अन्तर्गत डॉ. श्यामसुन्दर दूबे, निदेशक, मुक्तिबोध सृजनपीठ, डॉ. हरि सिंह गौर, वेंâद्रीय वि.वि. सागर ने लोक-दृष्टि को भारतीय इतिहास-दृष्टि का एक प्रमुख पक्ष बताया। डॉ. चितरंजन मिश्र ने कहा कि इतिहास, परम्परा और आधुनिकता में एक निरंतर संवाद है। औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि ने हमारे इतिहास-लेखन की परम्परा को क्षत-विक्षत किया और एक ऐसे इतिहास को महत्वपूर्ण बनाया जिसने भारतीय जनमानस को आत्महीनता से ग्रस्त किया। प्रो. राधेश्याम दूबे ने इतिहास की परम्परा और परम्परा के इतिहास की चर्चा करते हुए वीर पूजा की प्रवृत्ति की अभारतीयता को स्पष्ट किया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. ओमप्रकाश, पूर्व कुलपति, रूहेलखण्ड वि.वि. बरेली ने कहा कि वर्तमान युग खंडन का है, आधुनिकता इतिहास और परम्परा का खंडन करती है और भूमंडलीकरण आधुनिकता को खारिज करता है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मात्र पत्थरों के आधार पर इतिहास की समझ असंभव है। सत्र का संयोजन डॉ. बलभद्र ने किया।
तीसरे अकादमिक सत्र में विमर्श का विषय था ‘परम्परा : भारतीय संदर्भ’। इसका संयोजन करते हुए प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने ट्रेडिशन से भिन्न ‘परम्परा’ शब्द में निहित गतिशीलता को स्पष्ट किया। श्री जगदीश डिमरी और डॉ. माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने भारतीय परम्परा को भाषा और व्याकरण पर आधारित मानते हुए उसकी व्याख्या प्रस्तुत की। स्पष्ट किया कि हमारी परम्परा के वेंâद्र में सत्ता नहीं रही है, प्रबोधन और संबोधन रहा है। दोनों वक्ताओं ने इसके ब्याज से भारत की भाषा-समस्या के भी विभिन्न पक्षों को इस विमर्श से संयुक्त किया। डॉ. विद्याविंदु सिंह ने भारतीय परम्परा की बेहतर अभिव्यक्ति पारम्परिक लोकगीतों से मानते हुए उदाहरण के रूप में लोकगीतों को भी प्रस्तुत किया। अध्यक्ष प्रो. शिवजी उपाध्याय, पूर्व प्रतिकुलपति ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में विमर्श का समाहार प्रस्तुत करते हुए ‘परम्परा’ शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या से लेकर उसके समग्र अर्थ-विस्तार को समेटने का यत्न किया।
दूसरे दिन चौथे सत्र ‘आधुनिकता और उसके विकल्प : वर्तमान संदर्भ’ के संयोजक ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य से विमर्श की पीठिका तैयार की। डॉ. दिलीप सिंह ने भाषा और साहित्य के विकल्पों की खोज करते हुए कहा कि अस्मिता की भाषा के साथ ही भाषा की अस्मिता की बात अब अनिवार्य है। भारतीय भाषा-परिदृश्य के आधुनिक ढलान के विकल्प हमारे बीच हैं लेकिन उनकी खोज हमें उसी शिद्दत से करनी होगी जिस शिद्दत से हमने भक्ति और स्वतंत्रता आंदोलन में की थी। डॉ. माधवेन्द्र पाण्डेय ने परम्परा को प्रगतिशील मूल्य के रूप में जबकि रूढ़ि को स्थगित मूल्य के रूप में और आधुनिकता को परम्परा की वैज्ञानिक स्वीकृति के रूप में परिभाषित किया। डॉ. अमर नाथ अमर ने कहा कि आधुनिकता भारतीय परम्परा का एक सकारात्मक पक्ष है, जिसमें जीवन-मूल्य समाहित है।
उन्होंने रामायण और महाभारत से लगायत भक्ति आंदोलन तक से आधुनिकता-बोध के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए। डॉ. बलराज पाण्डेय ने बताया कि बाजार पूंजीवाद का एक अमोघ अस्त्र है और उसने आस्था, परम्परा, आधुनिकता सबको विकृत किया है, त्याग की जगह भोग की संस्कृति को बढ़ावा दिया है। दु:खद यह है कि इसके विरुद्ध संघर्ष की प्रवृत्ति क्षीणतर होती जा रही है। प्रभाकर मिश्र ने मानुष भाव के विलोप को आधुनिकता का सबसे बड़ा संकट बताया। श्रीनिवास पाण्डेय ने भारतीय परम्परा के बोध को सच्चे अर्थों में आधुनिक होने के लिए आवश्यक बताया। प्रो. सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने आज के वैश्विक परिदृश्य में आधुनिकता के भारतीय बोध को अपने आप में बने रहने के लिए, अनिवार्य बताया। इस सत्र को डॉ. कामेश्वर उपाध्याय और विनय झा ने भी अपने विचारों से सम्पन्न किया। इस सबसे विचारोत्तेजक और लम्बे सत्र को अच्युतानन्द मिश्र के अध्यक्षीय वक्तव्य ने अपेक्षित गरिमा प्रदान की। उन्होंने बताया कि किस तरह अंग्रेज सरकार ने योजनापूर्ण ढंग से भारत की कृषि सभ्यता को औद्योगिक सभ्यता में बदलने का और भारतीय बुद्धिजीवी को अपनी परम्परा, अपने जीवनमूल्यों अपनी संस्कृति और भाषाओं से काट देने का प्रयास किया। आधुनिक भारत का सबसे बड़ा संकट यह है कि स्वाधीन भारत के नेताओं ने उन मूल्यों को छोड़ दिया जिन्हें लेकर हमने आजादी के लिए संघर्ष किया था। उन्होंने कहा कि सुखद यह है कि भारतीय युवा आज के राजनेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों को नकार चुका है क्योंकि वह इस पाखण्ड का हिस्सा नहीं बनना चाहता है। वह नया रास्ता तलाश रहा है और नया विकल्प उसी से निकलेगा।
पंचम सत्र रचनाकर्म पर वेंâद्रित था। इसका शुभारंभ साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कथाकार काशीनाथ सिंह को विद्याश्री न्यास और हिन्दी विभाग, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज की तरफ से सम्मानित करने के साथ हुआ। डॉ. महेश्वर मिश्र ने काशीनाथ जी के साथ मैत्री व पारिवारिक संबंधों के मार्मिक संदर्भों को याद करते हुए उन्हें रुद्राक्ष की माला, अंगवस्त्र, स्मृति-चिह्न और श्रीफल से सम्मानित किया।
विमर्श की शुरुआत करते हुए भारती गोरे ने कहा कि अपने इतिहास, उससे मिले पाठ की सकारात्मकता बनाए रखने वाली परम्परा और उनके अच्छे बुरे तत्वों की पड़ताल करने के बाद उभरी सजगता को समझने का कार्य साहित्यकार करते आ रहे हैं। इतिहास, परम्परा और आधुनिकता की परतों में भीतर ही भीतर होती अन्तर्यात्रा का उद्घाटन साहित्य में ही संभव है। प्रसिद्ध कवि अष्टभुजा शुक्ल ने कहा कि रचनाकार किसी सम्मोहन में नहीं लिखता, वह एक उद्वेग में लिखता है और उसका लेखन उद्विग्न करता भी है। उन्होंने ब्रेख्त की एक कविता के पंडित जी के किए अनुवाद के आधार पर रचना में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया।
डॉ. राजेंद्र प्रसाद पाण्डेय ने रचना में कथ्य और अभिव्यक्ति की भंगिमाओं की भूमिका की गहरी विवेचना संस्कृत और हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में की। आलोचना-कर्म पर बोलते हुए मुम्बई से पधारे प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि आज आलोचना के सामने चाहे जो संकट हो आलोचक के सामने कोई संकट नहीं है क्योंकि पता है कि उसे क्या लिखना है और इस बात की चिंता नहीं है कि इससे आलोचना का क्या होगा। ग्लोबलाइजेशन के इस युग में यह बिखराव और यह स्वच्छन्दता ही आज की सबसें बड़ी त्रासदी है।
अध्यक्षीय वक्तव्य के रूप में साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित रचनाकार श्री काशीनाथ सिंह ने कहा कि मैं बुनियादी तौर पर खुद को लेखक मानता हूँ, अध्यापन मैंने जीविका के लिए किया और करना पड़ा। लेखन के दौरान निरन्तर आत्मनिरीक्षण करता रहा कि क्या, वैâसे और किसके लिए लिखूँ। इसी क्रम में कहानी से संस्मरण से उपन्यास से कहानी की तरफ चला लेकिन इन सबके दौरान पाठक हमेशा मेरे सामने रहा। उसे नजरंदाज करके मैंने कुछ नहीं लिखा। उन्होंने जोर देकर कहा कि आज मेरे आलोचक, प्रशंसक सबने मेरी भाषा की प्रशंसा की है, यह भाषा मैंने सड़कों से, गलियों से सीखी है। भाषा पर काम करने के लिए मुझे पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेरित किया था और इसमें अपने अभिभावक समान पं. विद्यानिवास मिश्र से मुझे बहुविध मदद मिली।
पंचम सत्र में कविता, निबन्ध व काव्य-प्रतियोगिता में पुरस्कृत प्रतिभागियों द्वारा अपनी रचनाओं का पाठ भी किया गया।
समापन सत्र के साथ ही ‘इतिहास, परम्परा और आधुनिकता की अन्विति’ विषय पर गंभीर चर्चा हुई छठे सत्र में, जिसे श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज के सभागार में आयोजित किया गया।
आयोजन की शुरुआत में प्राचार्य श्री उदयन मिश्र ने अतिथियों का स्वागत किया। विषय-प्रवर्तन करते हुए प्रो. अवधेश प्रधान ने भारतीय परम्परा और आधुनिकता के द्वन्द्व को खारिज करते हुए उसकी अन्विति को ही सहज स्वाभाविक बताया। उन्होंने पूरब बनाम पश्चिम, प्राचीन बनाम आधुनिक में परम्परा को खतियाने की प्रवृत्ति को खतरनाक बताते हुए कहा कि भारतीय मनीषा ने विज्ञान को कभी उस तरह अनादृत नहीं किया जिस तरह पश्चिम ने किया। डॉ. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने लोभ और लाभ पर आधारित आधुनिकता के बोध को भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बताया। राजेंद्र प्रसाद पाण्डेय ने वैश्विकता की भारतीय भावना को वैश्वीकरण की आधुनिक लहर की तुलना में अधिक गरिमामय सिद्ध किया। इतिहास, परम्परा और आधुनिकता की अन्विति की लोक और शास्त्र में जो बहुविध अभिव्यक्ति हुई है उसे पाण्डेय जी ने प्रत्यक्ष किया।
मुख्य अतिथि डॉ. पृथ्वीश नाग, कुलपति, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ ने कहा कि आधुनिकता और परम्परा में सामंजस्य जरूरी है। नयी पीढ़ी आगे बढ़े, दुनिया में छा जाय और अत्यधुनिक सुविधाओं से लैस हो जाय लेकिन एकाकी जीवन जी रहे अपने बुजुर्गों को भी न भूले।
अपने अध्यक्षीय संबोधन में भारत-विद्या के पण्डित कमलेश दत्त त्रिपाठी ने तीनों दिन के विभिन्न सत्रों के विमर्श विन्दुओं का समाहार किया। उन्होंने कहा कि कोई भी विचार मात्र पुराना या नया या देशी या परेदशी होने से सही या गलत नहीं होता, मूल तत्व है सत्य जिसका संधान आवश्यक है।
डॉ. दयानिधि मिश्र, सचिव, विद्याश्री न्यास ने न्यास तथा हिन्दी विभाग की तरफ से पूरे आयोजन के अभ्यागत वक्ताओं, श्रोताओं, सहयोगियों के प्रति आभार प्रकट किया। इस सत्र का संचालन प्रकाश उदय ने किया। सभी अकादमिक सत्रोें में सत्रों के विषय से संबंधित पं. विद्यानिवास मिश्र के आलेखों का बीज वक्तव्य के रूप पाठ हुआ जिसे डॉ. सविता श्रीवास्तव, प्रकाश उदय, डॉ. अरुणेश नीरन ने सम्पन्न किया।
संगोष्ठी के पहले दिन की संध्या कवि-गोष्ठी के नाम रही जिसकी अध्यक्षता कवि गिरिधर करुण और संचालन श्रीकृष्ण तिवारी ने किया। कवि गोष्ठी में वशिष्ठ अनूप, हरिराम द्विवेदी, रविन्द्र उपाध्याय ‘कौशिश’, अंकिता, सौरभ सरोज, राम अवतार पाण्डेय, शिव कुमार पराग, अलकबीर, अशोक सिंह ‘घायल’, रंजना राय, वशिष्ठ मुनि ओझा, ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, अमर नाथ अमर, उद्भव मिश्र, प्रकाश उदय प्रभृति अनेक कवियों ने काव्य पाठ किया। संगोष्ठी के दूसरे दिन की संध्या पं. विद्यानिवास मिश्र पर डॉ. मुक्ता के वृत्तचित्र ‘छितवन की छाँह में’ की प्रस्तुति के साथ सम्पन्न हुई। सत्र के तीनों दिन के सभी अकादमिक सत्रों की सबसे बड़ी सफलता इनमें स्थानीय से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक देश के प्राय: सभी हिस्सों से आये प्रतिभागियों की भागीदारी रही। उल्लेखनीय है कि इस आयोजन में श्री शिवनाथ पाण्डेय के तीन उपन्यासों ‘स्वर्ग से नरक तक’, ‘दलदल’ तथा ‘अंधे की डायरी’ एवं डॉ. विश्वनाथ वर्मा की पुस्तक ‘प्राचीन भारत में विधवाओं के विविध परिवर्तनीय आयाम’ का लोकार्पण भी सम्पन्न हुआ।
आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान/लोककवि सम्मान
इस अवसर पर विद्याश्री न्यास द्वारा मूर्धन्य साहित्यकार निर्मल कुमार को उनकी रचना ‘ऋतुराज’ के लिए चतुर्थ आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान तथा प्रसिद्ध कवि गिरिधर करुण को लोककवि सम्मान से अंगवस्त्र, श्रीफल, रुद्राक्ष, माला, प्रशस्ति-पत्र, स्मृति-चिह्न के साथ पत्र-पुष्प सहित समादृत किया गया। आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति-सम्मान के अन्तर्गत रू. २१०००/- की राशि प्रदान की गई। भारतीय लेखक-शिविर की एक उपलब्धि के रूप में इस वर्ष का युवा प्रतिभा सम्मान सुश्री रचना सिंह को प्रदान किया गया।
काव्य/निबंध-प्रतियोगिता एवं पोस्टर-प्रदर्शनी
अन्तर्भारतीय युवा समवाय के अन्तर्गत काव्य-प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय, तृतीय पुरस्कार क्रमश: अभिनव अरुण, विनीता सिंह एवं विनायक (संयुक्त) तथा आस्था सिंह को, निबन्ध प्रतियोगिता में क्रमश: आलोक दीपक, सच्चिदानन्द देव पाण्डेय एवं प्रीति राय (संयुक्त) तथा रत्नेश कुमार मिश्र को तथा आलेख-पाठ प्रतियोगिता में क्रमश: विनीता सिंह, बिजुमणि कलिता एवं जिंटु कुमार डेका तथा शेखर ज्योतिशील एवं रानी देवी (संयुक्त) को दिया गया। कविता-पोस्टर प्रतियोगिता के लिए संभावना कला मंच, गाजीपुर के कलाकारों श्री राजकुमार सिंह और उनके साथियों को पुरस्कृत किया गया।
‘चिकितुषी’ का प्रकाशन
विद्याश्री न्यास की सांवत्सर पत्रिका चिकितुषी के छठे अंक का प्रकाशन किया गया।
संस्कृत कवि-गोष्ठी
१४ फरवरी को वाराणसी में प्रसिद्ध साहित्यकार एवं ‘साहित्य अमृत’ के संस्थापक पं. विद्यानिवास मिश्र की पुण्यतिथि पर विद्याश्री न्यास द्वारा भारतधर्म महामंडल, लहुराबीर के सभागार में एक संस्कृत कविगोष्ठी आयोजित की गई। मुख्य अतिथि पं. रेवाप्रसाद द्विवेदी थे व अध्यक्षता पं. शिवजी उपाध्याय ने की। शुभारंभ पं. विद्यानिवास मिश्र के चित्र पर माल्यार्पण एवं डॉ. राममूर्ति चतुर्वेदी के वैदिक मंगलाचरण से हुआ। स्वागत एवं संचालन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पांडेय ने किया। युवाकवि डॉ. विजय कुमार पांडेय ने अपनी गीति-रचना ‘विद्यानिवास गुरुदेव नमोऽस्तु तुभ्यम्’ एवं डॉ. शिवराम शर्मा ने ‘विद्यानिवास विवुधाय नमांसि मे स्यु:’ के माध्यम से पंडित जी के प्रति अपनी काव्यांजलि प्रस्तुत की। डॉ. विवेक पांडेय ने ‘यदारोपितं पुरा बीजरूपेण सर्वं खलु सघन वनं जातम्’ एवं ‘रोद्धया अस्ति घूर्णयंती धरित्री’ जैसी काव्य-पंक्तियों से आधुनिक भावबोध का परिचय दिया। डॉ. पवनकुमार शास्त्री ने ‘दीपोस्मि’, ‘भवामि साक्षी’ आदि कई व्यंग्यपरक लघुकविताएँ सुनाई। डॉ. हरिप्रसाद अधिकारी ने ‘विश्वभाषा सदा वर्धतां भूतले’ की कामना की। डॉ. कमला पांडेय ने चुनावी माहौल को ध्यान में रखते हुए मतदाताओं से चुप्पी तोड़ने को कहा- ‘कथं देयं मतं नेत:’। डॉ. धर्मदत्त चतुर्वेदी ने भी चुनाव के संदर्भ में कई काव्य-चुटकियाँ लीं। डॉ. गायत्री प्रसाद पांडेय ने ‘वेलेंटाइन डे’ को अपनी कविता के निशाने पर लिया। डॉ. उपेन्द्र पाण्डेय ने ‘हुतात्माष्टकम्’ तथा पं. सदाशिव द्विवदी ने ‘शमायात: काल:’ शीर्षक कविता का पाठ किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने ‘प्राप्त: स शुक्लाक्षत भावमव्ययम्’ कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: यथार्थवेत्ता च निरन्ता कर्मा’ कविता का प्रभावी पाठ किया। सर्वश्री कमला पांडेय, धर्मदत्त द्विवेदी, उपेन्द्र पांडेय तथा सदाशिव द्विवेदी ने भी प्रभावी काव्य-पाठ किया। समारोह में सर्वश्री श्रीकृष्ण तिवारी, जितेन्द्र नाथ मिश्र, रामनाथ त्रिपाठी, प्यारेलाल पांडेय, अरविंद पांडेय, अरविंद त्रिपाठी, वशिष्ठ त्रिपाठी, सत्येन्द्र, ध्रुव पांडेय, प्रकाश उदय आदि उपस्थित थे।
पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति व्याख्यान
महामना मालवीय संस्कृति न्यास द्वारा संकल्पित पत्रिका ‘संस्कृति-विमर्श’ के प्रवेशांक की विषयवस्तु ‘संस्कृति और धर्म’ पर पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति व्याख्यान एवं परिचर्चा का आयोजन विद्याश्री न्यास एवं महामना मालवीय संस्कृति न्यास के संयुक्त तत्वावधान में २ सितम्बर २०१२ को कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन, रथयात्रा, वाराणसी में दो सत्रों में सम्पन्न हुआ।
पहले सत्र में स्वागत-भाषण के साथ ही विषय-प्रवर्तन करते हुए श्री अच्युतानन्द मिश्र ने समकालीन भारतीय सन्दर्भ में तीन राष्ट्रीय स्तर के संकटों को रेखांकित किया- विचारधारा, आदर्श और ईमानदार नेतृत्व के संकट के रूप में। उन्होंने धर्म और संस्कृति की भारतीय अवधारणा में इन संकटों से उबरने और उबारने की शक्ति की तरफ भी इंगित किया। मुख्य वक्ता सागर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोपेâसर श्री अम्बिकादत्त शर्मा ने भारतीय संस्कृति के सामाजिक या बहुलतावादी होने के बजाय एकात्मक होने पर जोर दिया। उनके अनुसार आजादी के बाद यहाँ राजनीतिक एकीकरण का तो प्रयास किया गया, सांस्कृतिक एकीकरण के प्रति उदासीनता ही दिखी। उन्होंने बौद्ध मत, जैन मत आदि को सनातन धर्म-संस्कृति के विस्तार के रूप में न कि विरोध के रूप में देखने पर बल दिया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में भारत विधा के पण्डित श्री कमलेश दत्त त्रिपाठी ने संस्कृति और कल्चर तथा धर्म और रिलिजन के पार्थक्य को स्पष्ट करते हुए भारतीय सन्दर्भ में उनकी विशद और रोचक व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने हमारी धर्म-संस्कृति को लोक और शास्त्र दोनों किनारों से मर्यादित एक प्रबल प्रवाह के रूप में रेखांकित किया। इस प्रवाह में, उनके अनुसार, अपने सूफी मिजाज के साथ इस्लाम भी शामिल है। परिचर्चा में भाग लेते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, डॉ. अनिल त्रिपाठी, श्री आशुतोष शुक्ल आदि ने अपने विचारों से इस सत्र की सार्थकता बढ़ा दी।
दूसरे सत्र का विषय था ‘युवा पीढ़ी और धर्म’। मुख्य वक्ता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोपेâसर श्री आनन्द मिश्र ने धर्म एवं संस्कृति संबंधी भारतीय वैचारिकी की सुदीर्घ परम्परा का विशद विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने सत्य और असत्य के विभेद के विवेक को ही धर्म की भारतीय अवधारणा का मूल मानते हुए युवा पीढ़ी में इसी चेतना की जरूरत बताई। अध्यक्षीय वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. अवधेश प्रधान ने धर्म के सत्य स्वरूप को युवा पीढ़ी के सर्वाधिक नजदीक लाने वाले विवेकानन्द को याद किया। उन्होंने विज्ञान से अधीत, उसके स्वागत के लिए सदा तत्पर धर्म-सम्बन्धी चिंतन के सर्वसमावेशी चरित्र को बेहद सतर्वâता और ओजस्विता के साथ प्रस्तुत किया। इस क्रम में उन्होंने दोनों सत्रों में उठे विभिन्न प्रश्नों के उत्तर भी दिए और धर्म के नाम पर व्याप्त प्रकट-अप्रकट पाखण्डों पर भी जोरदार प्रहार किए। इस सत्र में सर्वश्री रमेश कुमार द्विवेदी, चन्द्रकला त्रिपाठी, अवधेश दीक्षित, चन्द्रकान्ता राय, यदुनाथ दूबे, श्रीनिवास पाण्डेय, विश्वनाथ कुमार ने भी अपने विचार प्रकट किए। व्याख्यान के दोनों सत्रों में सर्वश्री जितेंद्र नाथ मिश्र, श्रद्धानन्द, अनिल भाष्कर, पवन कुमार शास्त्री, रामसुधार सिंह, हरेराम त्रिपाठी, नरेन्द्रनाथ मिश्र, रामबख्श मिश्र, बलबीर सिंह, डॉ. उदय प्रताप सिंह, शशिकला पाण्डेय, विश्वनाथ वर्मा, आशुतोष द्विवेदी, बब्बन प्रसाद सिंह जैसे विद्वानों, रचनाकारों और बी.एच.यू., काशी विद्यापीठ, हरिश्चन्द्र कॉलेज, यू.पी. कॉलेज एवं श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज के शोध छात्रों की उपस्थिति ने इस आयोजन की गरिमा में श्रीवृद्धि की।
इस व्याख्यान और परिचर्चा की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने धन्यवाद ज्ञापित किया। दोनों सत्रों का संचालन क्रमश: डॉ. वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी एवं प्रकाश उदय ने किया।
जिज्ञासा : साहित्य-संवाद की नई शृंखला
‘‘दक्षिण भारत का हिन्दी-विरोध विशुद्ध रूप से राजनीतिक है, जमीनी सचाई से उसका कोई वास्ता नहीं’’- यह बात चेन्नई से पधारे हिन्दी-विद्वान डॉ. एन.सुन्दरम ने ‘गाँधी जी की भाषा-दृष्टि’ विषय पर आयोजित विचार-गोष्ठी ‘जिज्ञासा’ में कही। ‘जिज्ञासा’ नाम से विचार-गोष्ठियों की एक शृंखला पं. विद्यानिवास मिश्र ने शुरू की थी, जिसे विद्याश्री न्यास ने पुन: आरम्भ किया है। ‘जिज्ञासा की इस दूसरी शुरुआत की यह पहली गोष्ठी न्यायमूर्ति गणेशदत्त दूबे की अध्यक्षता में वरूणापार ‘विद्याश्री’ में संपन्न हुई। आधार वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने बताया कि गाँधीजी ने किस तरह हिन्दी के सवाल को करोड़ों भारतीयों की स्वतंत्रता के सवाल से जोड़ दिया। उन्होंने जोहान्सवर्ग में हाल ही में सम्पन्न हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन के अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि हिन्दी का सम्मान तभी संभव है जब हम अपनी और औरों की भी मातृभाषा का सम्मान करें। डॉ. एन.सुन्दरम् तथा डॉ. पी.के. बालसुब्रह्मण्यम ने दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार के लिए दक्षिण भारतीयों को ही तैयार करने की, इसके लिए उन्हीं से संसाधन जुटाने की नीति को गाँधीजी की दूरदर्शिता के रूप में रेखांकित किया। दक्षिण भारतीय हिन्दी अध्यापिका श्रीमती सुलोचना ने अपने अध्यापकीय अनुभवों को प्रस्तुत किया। डॉ. वाचस्पति ने इन दक्षिण भारतीय विद्वानों की हिन्दी-सेवा से परिचित कराया तथा अध्यक्ष श्री गणेश दत्त दूबे ने उत्तरीय से इन सभी का सम्मान किया। परिचर्चा में भाग लेते हुए प्रो. श्रद्धानन्द ने हिन्दी-प्रसार के भाषा वैज्ञानिक आयामों का विवेचन किया। डॉ. वशिष्ठ अनूप तथा डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र ने ऐसे आयोजनों के महत्व को रेखांकित करते हुए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए। डॉ. उदय प्रताप सिंह ने भाषा-अध्ययन की दृष्टि से दक्षिण भारत की यात्रा का प्रस्ताव रखा। वशिष्ठ मुनि ओझा ने ऐसी यात्राओं की सफलता के लिए दक्षिण भारतीय भाषाएँ सीखने की जरूरत पर बल दिया। डॉ. शशिकला पाण्डेय ने हिन्दी के सर्वग्राही चरित्र को उसकी शक्ति बताते हुए दूसरी भाषाओं के गैर जरूरी शब्दों के जबर्दस्ती इस्तेमाल की प्रवृत्ति को घातक बताया। कवि-गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने अपनी लन्दन-यात्रा के अनुभवों से बताया कि वहाँ विभिन्न प्रांतों के भारतीय संपर्वâ भाषा के रूप में हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। गोष्ठी को श्रीकृष्ण तिवारी और डॉ. अशोक सिंह के काव्य-पाठ ने जीवन्त बना दिया। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में न्यायमूर्ति गणेशदत्त दूबे ने स्पष्ट किया कि संकट सिर्पâ हिन्दी के सामने नहीं है, भाषामात्र के सामने है। भाषा सीखने-सिखाने के प्रति एक अरुचि का वातावरण है। डॉ. मुक्ता, डॉ. नरेन्द्र नाथ मिश्र, डॉ. रमेश कुमार द्विवेदी, डॉ. पवन कुमार शास्त्री, डॉ. सविता श्रीवास्तव, डॉ. रवीन्द्रनाथ दीक्षित आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
अतिथियों का स्वागत करते हुए विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने ‘जिज्ञासा’ के स्वरूप और उसकी भावी योजनाओं को भी स्पष्ट किया। कार्यक्रम का संचालन प्रकाश उदय ने और धन्यवाद-ज्ञापन डॉ. रामसुधार सिंह ने किया।
गतिविधि २०११
भारतीय लेखक-शिविर एवं आधुनिक हिन्दी कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
विद्याश्री न्यास ने इस वर्ष अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन व केदारनाथ अग्रवाल की जन्मशती के उपलक्ष्य में आधुनिक हिन्दी कविता में इनके योगदान पर केन्द्रीय संस्थान, आगरा के सहयोग से एक त्रिदिवसीय संगोष्ठी एवं भारतीय लेखक-शिविर (१२-१४ जनवरी, २०११) का आयोजन किया।
उद्घाटन-सत्र की शुरुआत मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति श्री गिरिधर मालवीय व अध्यक्ष प्रो. कुटुम्ब शास्त्री (कुलपति, सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय) द्वारा सरस्वती व स्व. पंडितजी की प्रतिमा पर माल्यार्पण तथा पं. लेखमणि त्रिपाठी द्वारा पौराणिक वन्दना से हुई। प्रमुख वक्ता श्री मालवीयजी ने श्री विद्यानिवास मिश्र की विलक्षण प्रतिभा को याद करते हुए उनकी स्मृति में आयोजित ऐसे सारस्वत कार्यक्रम को उस गरिमा के अनुवूâल बताया। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत डॉ. उषा किरण खान ने विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए पंडितजी एवं नागार्जुन के रोचक संस्मरण सुनाये। अध्यक्षीय सम्बोधन में शास्त्री जी ने कहा कि आज जो नैतिक गिरावट समाज में आयी है, वह साहित्य के पाठकों की कमी के कारण है। ऐसे आयोजनों से यह कमी अवश्य दूर होगी। पंडितजी को भी समाज की ऐसी ही परख थी। वे रॉयल टच के होते हुए भी कॉमन टच वाले थे। सत्र का संयोजन अरुणेश नीरन ने किया एवं न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने धन्यवाद करते हुए इस महायज्ञ में अतिथियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।
विमर्श के सत्रों की शुरुआत ‘नागार्जुन और आधुनिक हिन्दी कविता’ से हुई, जिसमें संयोजक बलराज पाण्डेय ने बाबा की कविता को भारतीय लोकधर्मी कविता का वास्तविक रूप बताया। औरंगाबाद से आयी भारती गोरे ने नागार्जुन की कविता को उनके सामाजिक-राजनीतिक अनुभवों की शृंखला माना। उषा किरण खान ने फिर अपने संस्मरण सुनाते हुए इस बार अपनी काकी (बाबा की पत्नी) पर फोकस किया कि वे बाबा की कविताओं में पूरी तरह संलिप्त थीं। उन्हें हर कविता के स्रोतों का सही पता था। इस सत्र की अध्यक्षता बाबा के सुयोग्य पुत्र श्री शोभाकांत ने की। उन्होंने पिता की कविताओं में तात्कालिकता की छाप को ज्वलंत समकालीन समस्याओं के प्रति उनकी गहन अनुरक्ति के रूप में देखा और प्रेम कविताओं को अन्तरतर की संवेदना का सच्चा रूपायन बताया।
दूसरा सत्र ‘अज्ञेय और आधुनिक हिन्दी कविता’ की शुरुआत सयोजक सत्यदेव त्रिपाठी द्वारा बीज वक्तव्य के रूप में अज्ञेयजी पर लिखे स्व. विद्यानिवासजी के लेख ‘पलाश के पूâल की दहक’ के पाठ से हुई, जिसमें अज्ञेय पर सभी सम्भावित विमर्शों का सूत्रवत निदर्शन सुनने को मिला। अज्ञेय की अध्येता चन्द्रकला त्रिपाठी ने उन्हें व्यक्तिवादी-रूढ़िवादी लेबल्स से बाहर निकालते हुए अन्वेषक व प्रयोगवादी करार दिया। रीतारानी पालीवाल ने अज्ञेय के साहित्य में जापानी प्रभाव को रेखांकित करने का अच्छा आयाम उठाया व एक हद तक किया भी, और इस क्रम में गद्य-साहित्य की तरफ भी संकेत किया। अगले वक्ता राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय अपनी सनातन परम्परा में आधुनिक कविता को वेदों से जोड़ते हुए ‘असाध्य वीणा’ तक आये और विद्या बिन्दु सिंह ने ‘समकालीन कविता: वर्तमान और भविष्य’ पर अपना आलेख-पाठ किया। अध्यक्षीय वक्तव्य में कृष्णदत्त पालीवाल ने अज्ञेय-पूर्व समूची आधुनिक कविता के परिप्रेक्ष्य में वात्स्यायनजी का सटीक मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए उदाहरणों की झड़ी लगा दी और कवि रूप में उन्हें प्रसाद के करीब माना। पालीवालजी ने अज्ञेय को साहित्य का लोहिया बताते हुए इलियट के समक्ष उनके वक्तव्य ‘तुम योरप की तरफ से बोलते हो, तो मैं भारत की तरफ से बोलता हूँ’ को उद्धृत किया।
शाम पाँच बजे से सात बजे तक बीएचयू के हिन्दी विभागाध्यक्ष राधेश्याम दुबे की अध्यक्षता व प्रो. सुरेन्द्रप्रताप के संचालन में ‘समवाय’ के अंतर्गत उक्त दोनों कवियों पर नयी पीढ़ी के ५-७ मिनटों के आलेख प्रस्तुत हुए और यह क्रम दूसरे दिन सुबह नौ बजे से ग्यारह बजे के दौरान शमशेर व केदारजी पर भी चला, जिसकी अध्यक्षता काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष श्रद्धानन्द व संचालन डॉ. शिवकुमार मिश्र ने किया। इसमें स्थानीयों के साथ मुम्बई, आसाम, सिक्किम, अरुणांचल आदि पूरे भारत से आये कुल लगभग चालीस युवाओं ने लेख पढ़े, जो नियत निर्णायक-मंडल द्वारा सुने व जाँचे गये और अंक के आधार पर प्रत्येक कवि पर दो-दो पुरस्कार भी दिये गये। न्यास का यह आयोजन इसी साल शुरू हुआ तथा पिछले सालों से चले आ रहे कविता व निबन्ध-स्पर्धा को मिलाकर कुल १८ पुरस्कार दिये गये। इस पूरी योजना का संचालन सत्यदेव त्रिपाठी के जिम्मे रहा, जिन्होंने पुरस्कार-समारोह का संचालन करते हुए कहा कि जिस तरह का उत्साह व लगन लिये युवा पीढी आयी है, उसे देखते हुए अगले सालों में इस ‘समवाय’ योजना को और व्यवस्थित व विकसित करने की आवश्यकता है।
शिविर के दूसरे दिन के पूर्वाह्न एवं अपराह्न के दो सत्रों में क्रमश: शमशेर बहादुर सिंह व केदारनाथ अग्रवाल के सन्दर्भ में आधुनिक कविता पर चर्चा हुई। पहले सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार व सम्पादक प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपने सुदीर्घ व्याख्यान में कहा कि शमशेर को प्रगतिशील, रूमानी, रूपवादी आदि घटकों में बाँधकर देखने वाली एकांगी आलोचनाओं से नहीं समझा जा सकता; क्योंकि वे संश्लिष्ट कवि हैं। उन्हें समझने के लिए कविताओं के अलावा उनके समूचे रचना-संसार से गुजरना होगा। उन्होंने शमशेर-काव्य के ढेर सारे सामाजिक व कलात्मक आयामों को व्याख्यायित किया, लेकिन सौन्दर्य एवं प्रेम को उनका मूल स्वर बताते हुए कहा कि उनकी प्रगतिशीलता और प्रेम के बीच कोई अंतर्विरोध नहीं है। वक्ताओं में वशिष्ठ अनूप ने उनकी विशिष्ट अन्दाज की गजलों को सबसे बड़ी देन बताया। श्रीप्रकाश शुक्ल ने शमशेर को कविता के प्रति पूर्णत: समर्पित और अनुभूति का कवि कहा। सत्र का शालीन संयोजन किया जितेन्द्रनाथ मिश्र ने।
अगले सत्र की शुरुआत संयोजक रामसुधार सिंह द्वारा कवि केदारनाथ अग्रवाल पर पण्डितजी के आलेख-पाठ से हुई। इसे आगे बढ़ाते हुए अवधेश प्रधान ने कवि केदार को पहली पंक्ति का ऐसा कवि बताया, जिसने छायावादी काव्य-भाषा से मुक्त अपनी मौलिक काव्य-भाषा तलाशने में सफलता पायी। इसके बाद विदुषियों के नाम रहा यह सत्र, जिसमें कुमुद शर्मा ने केदार नाथ अग्रवाल के काव्य-विधान में जनसंस्कृति, ऐतिहासिकता व तमाम काव्यान्दोलनों की झाँकी देखी। प्रेमशीला शुक्ल ने उन्हें सर्वाधिक विविधता वाले कवि के रूप में रेखांकित किया। शशिकला पाण्डेय ने कवि केदार को गहन जिजीविषा तथा प्रकृति के रहस्यों को स्वर देने वाला कवि कहा। अध्यक्षीय सम्बोधन में चितरंजन मिश्र ने उन्हें किसान चेतना के सच्चे आधुनिक कवि के रूप में प्रस्तुत किया।
संगोष्ठी के शीर्षक को सार्थक करता सत्र हुआ शाम को- ‘आधुनिक कविता: वर्तमान और भविष्य’। इसकी शुरुआत भी योजनानुसार पण्डितजी के आलेख से हुई, जिसका सधा पाठ किया संयोजक प्रकाश उदय ने। ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने आज की कविता के व्यापक सरोकारों को भूमंडलीकरण, बाजार, पर्यावरण, स्त्री-दलित विमर्श आदि में परखा। माधवेन्द्र पाण्डेय ने आधुनिक कविता में आये ह्रास को ‘जीवन और कविता के बीच बढ़ी दूरी’ और ‘मार्वेâट की वस्तु बनती कविता’ में देखा। प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण तिवारी ने कविता की विशिष्टताओं की चर्चा में उसे संवेदनशील व्यक्ति की अनुभूति कहा। इसी विशिष्टता वाले पक्ष को आगे बढ़ाते हुए अध्यक्ष अनंत मिश्र ने कविता को समाज की प्रेरक तथा रुचियों का संस्कार करने वाली बताते हुए आधुनिक कविता की पहचान इहलोक की कविता रूप में की।
उक्त दोनों ही दिनों की शामें साहित्यिक-सांस्कृतिक समारोहों से गुलजार रहीं। पहली शाम को श्रीकृष्ण तिवारी के संचालन में हुई काव्यगोष्ठी में हिन्दी व भोजपुरी के बत्तीस कवियों ने काव्य-पाठ किया और दूसरे दिन प्रसिद्ध बिरहा गायक हीरालाल यादव का झमाकेदार गायन हुआ।
तीसरे दिन समापन के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध कवि प्रो. केदार नाथ सिंह थे तथा अध्यक्षता पद्मश्री सुनीता जैन ने की। इस अवसर पर पंडित जी द्वारा लिखित और सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘द स्ट्रक्चर ऑफ इंडियन माइंड’ एवं उन पर लिखी दो पुस्तकों का लोकार्पण हुआ- ‘रसपुरुष पं. विद्यानिवास मिश्र’- नर्मदा प्रसाद उपाध्याय एवं ‘विद्यानिवास मिश्र की शब्द-सम्पदा’- आशुतोष मिश्र।
पंडित जी की यादों वाले इस सत्र के प्रमुख अतिथि प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह ने अपने जीवन में उनके योगदान को बड़े सलीके से रेखांकित करते हुए उन्हें लोकचित्त वाला व्यक्ति कहा। हिन्दी कविता को पश्चिमी देशों तक पहुँचाने वाले के रूप में उनके श्रेय की चर्चा की। इस क्रम में उड़िया के विख्यात कवि श्रीनिवास उद्गाता ने स्व. मिश्रजी को माँ शारदा का वरद पुत्र कहा। काशीनाथ सिंह ने ३-४ सालों में न्यास के बीज को वृक्ष बन जाने के सहृदयतापूर्ण उल्लेख के साथ यादों के कई आत्मीय गवाक्ष खोले। कमलेश दत्त त्रिपाठी ने पंडितजी को समझने के प्रयास के साथ ही उनकी परम्परा को सही दिशा देने की आवश्यकता पर बल दिया। गिरीश्वर मिश्र, प्रभाकर मिश्र एवं विद्याबिन्दु सिंह ने भी पंडितजी के साथ की अपनी यादों को सभा के समक्ष रखा। सत्र की अध्यक्षता कर रही साहित्यकार सुनीता जैन ने स्त्रियों के प्रति पं. विद्यानिवास मिश्र के उदार दृष्टि को रोचक आख्यानों के माध्यम से सुनाते हुए उनके सर्वजन समभाव वाले व्यक्तित्व को याद किया।
इस सत्र का संचालन श्री प्रकाश उदय ने किया। कार्यक्रम की अंतिम कड़ी के रूप में ‘विद्याश्री न्यास’ के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने इस बड़े आयोजन में जिस किसी भी रूप में शामिल व सहायक होने वाले सभी लोगों का मन:पूर्वक आभार माना।
विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान/लोककवि सम्मान
पण्डित विद्यानिवास मिश्र के जन्मदिवस पर आयोजित लेखक-शिविर में विद्याश्री न्यास की तरफ से कवि श्री हीरालाल यादव को ‘लोककवि सम्मान’ एवं बहुमुखी रचनाकार श्री अमृत लाल बेगड़ को ‘तृतीय विद्यानिवास मिश्र स्मृति सम्मान’ प्रदान किया गया। सत्र के मुख्य अतिथि प्रो. केदार नाथ िंसह एवं अध्यक्ष पद्मश्री सुनीता जैन ने अंगवस्त्रम्, प्रशस्तिपत्र एवं स्मृतिचिह्न के साथ माल्यार्पण करके सत्कारमूत्र्तिद्वय को सम्मानित किया। स्मृति पुरस्कार के रूप में २१०००/- की धनराशि भी श्री अमृत लाल बेगड़ को प्रदान की गयी। इस अवसर पर सम्मानित रचनाकार श्री अमृत लाल बेगड़ ने कहा कि ऐसा सम्मान साहित्य-संस्कृति और कला की नगरी वाराणसी में ही हो सकता है। उनका भाषण बेहद आह्लादक व ज्ञानवर्धक रहा। हीरालाल यादव ने भी सम्मान के लिए पंडितजी की स्मृति को नमन करते हुए न्यास के प्रति अपना आभार माना।
निबंध, आलेख-पाठ, पोस्टर-निर्माण एवं काव्य-प्रतियोगिता
इसी क्रम में दिनांक १४ जनवरी, २०११ को सरिता उपाध्याय, चुकी भाटिया, सोनी स्वरूप, राकेश कुमार, श्रद्धा सिंह, जया दयाल, अर्चना झा, नीतू जायसवाल को शोध-पत्र के लिए, हरि पियारी देवी, विनीता सिंह, लक्ष्मण मिश्र, सुनीता, वीणा सुमन, मीलन सिंह, को निबन्ध के लिए; सच्चिदानंद देव पाण्डेय, सौरभ सिंह, रोहित कुमार, को कविता के लिए तथा शालिनी सिंह, राजकुमार सिंह, सपना सिंह, इजाद अहमद, सुनीता प्रजापति को पोस्टर-निर्माण के लिए तथा वसुदत्त मिश्र एवं धारिणी मिश्र को स्तोत्र-वाचन के लिए पुरस्कृत किया गया।
‘चिकितुषी’ पत्रिका का प्रकाशन
विद्याश्री न्यास की सांवत्सर पत्रिका ‘चिकितुषी’ के पाँचवे अंक का प्रकाशन किया गया।
कवि-अभ्यर्चना का आयोजन
विद्याश्री न्यास, नांदी, नांदी पत्रिका तथा गांधी अध्ययन केन्द्र, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव के संयुक्त तत्त्वावधान में मंगलवार दिनांक १८ जनवरी, २०११ को दोपहर रथयात्रा स्थित कन्हैयालाल मोतीवाला स्मृति भवन में आयोजित ‘कवि अभ्यर्चना’ कार्यक्रम के अंतर्गत आकाशवाणी के सर्वभाषा कवि-सम्मेलन के सिलसिले में वाराणसी पधारे संविधान-स्वीकृत सभी भाषाओं के प्रतिनिधि कवियों का भव्य सम्मान किया गया। वाराणसी की प्रमुख साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों द्वारा उत्तरीय, स्मृतिचिह्न, नारिकेल और पुष्पहार अर्पित करके जिन कवियों का सार्वजनिक अभिनंदन इस अवसर पर किया गया उनके नाम हैं- हर्षदेव माधव (संस्कृत), मणि वुंâतला (असमिया), पद्मश्री श्रीनिवास उद्गाता (उड़िया), डॉ. सईदा शानेमिराज (उर्दू), जीके रवींद्र कुमार (कन्नड़), युसुफ अहमद शेख (कोंकणी), बालकृष्ण संन्यासी (कश्मीरी), जितेंद्र ऊधमपुरी (डोंगरी), भारती वसंतन (तमिल), के.शिवा रेड्डी (तेलुगु), कमल रेग्मी (नेपाली), एस एस नूर (पंजाबी), अनुराधा महापात्र (बांग्ला), स्वर्ण प्रभा सेनारी (बोडो), मोराथेम बरकन्या (मणिपुरी), आलकोड लीलकृष्ण (मलयालम), दत्ता हलसगीर (मराठी), रवींद्रनाथ ठाकुर (मैथिली), प्रो. आसन बासवानी (सिंधी), खेरवाल सरेन (संथाली), विष्णु नागर एवं विनय उपाध्याय (हिंदी)। आयोजन में सर्वश्री राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, मंजुला चतुर्वेदी और सुरेश नीरव सहित काव्य-अनुवादकों तथा कवि-सम्मेलन के संचालक श्रीकृष्ण तिवारी को भी सम्मानित किया गया। सुश्री अलका पाठक की अध्यक्षता, आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी के मुख्य आतिथ्य तथा डॉ. वेणीमाधव शुक्ल एवं डा. एस.पी.ओझा के विशिष्ट आतिथ्य में सम्पन्न इस समारोह के मंच पर प्रो. राधेश्याम दुबे, प्रो. प्रभुनाभ द्विवेदी, प्रो. योगेन्द्र सिंह और प्रो. हरेराम त्रिपाठी के साथ-साथ आकाशवाणी के दिल्ली, लखनऊ और वाराणसी केन्द्रों के कई बड़े अधिकारी उपस्थित थे। सभी ने एक स्वर से कार्यक्रम की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस प्रकार के सम्मान-समारोह काशी नगरी में ही संभव है। स्वागत और सम्मान में आयोजक-मंडल के सर्वश्री डॉ. दयानिधि मिश्र, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पांडेय, डॉ. उदयन मिश्र, डॉ. शशिकाला पांडेय, डॉ. प्रकाश उदय और श्रीकृष्ण तिवारी आदि की सहभागिता उल्लेखनीय रही। इस अवसर पर सम्मानित कवियों ने अपनी रचनाएँ भी सुनार्इं।
संस्कृत कवि-गोष्ठी
पंडित विद्यानिवास मिश्र की पुण्यतिथि (१४ फरवरी) के अवसर पर पूर्व की भाँति इस वर्ष भी विद्याश्री न्यास की तरफ से संस्कृत काव्यगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह गोष्ठी भारत धर्म महामण्डल, लहुराबीर में संस्कृत के प्रख्यात पण्डित कवि आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी की अध्यक्षता एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. रमेश चन्द्र पण्डा, डीन, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, बी.एच.यू. की उपस्थिति में सम्पन्न हुई। भारत धर्म महामण्डल के महासचिव पं. धर्मशील चतुर्वेदी ने कवियों का स्वागत किया, साथ ही संस्कृत भाषा-साहित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इस काव्य-गोष्ठी को आज की जरूरत के रूप में रेखांकित किया। गोष्ठी के प्रारंभ में पं. श्रीकृष्ण तिवारी ने पं. विद्यानिवास मिश्र के संस्कृत एवं कविता-प्रेम को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।
काव्य-गोष्ठी में प्रो. कमलेश झा ने ‘शिवतत्त्वमीदृशम्’ शीर्षक कविता पढ़ी। डॉ. पवन कुमार शास्त्री ने ‘सन्यमस्ति ते तरुणि, मधुमयो देशोऽयं रसशाला’ का सस्वर पाठ किया। डॉ. उमारानी त्रिपाठी की रचना ‘करोमि राष्ट्रवन्दनम्’ को काफी पसंद किया गया। डॉ. धर्मदत्त चतुर्वेदी ने ‘प्रो. विद्यानिवास पञ्चकम्’ के द्वारा पण्डित जी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की। प्रो. राजाराम शुक्ल ने ‘विवेकवाणी’, प्रो. कौशलेन्द्र पाण्डेय ने ‘वयं धार्मिका:’ डॉ. कमलाकान्त त्रिपाठी ने ‘कुक्कुटाण्डभोज्यम्’, डॉ. भागवतशरण शुक्ल ने ‘हेमन्तौप्रणम्या जना:’, डॉ. सदाशिवकुमार द्विवेदी ने ‘द्रव्यस्य दासा : वयम्’ डॉ. गंगाधर पण्डा ने ‘मुकुन्दलहरी’, डॉ. हरिप्रसाद अधिकारी ने ‘जागृयात् कविभारती’, श्रीनाथधर द्विवेदी ने ‘स्धीयतां जम्बुकेनेव तावत्’, डॉ. राममूर्ति चतुर्वेदी ने ‘श्रद्धांजलि’ शीर्षक कविता का पाठ किया। डॉ. चन्द्रकान्ता राय की गीति-रचना ‘शोभते वाटिका न पुष्पं विना’ को श्रोताओं ने सराहा। कविगोष्ठी में समसामयिक समस्याओं को लेकर चुटीले व्यंग्य भी प्रत्यक्ष हुए।
काव्य-गोष्ठी का संचालन प्रो. हरिप्रसाद अधिकारी ने किया। गोष्ठी में प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी, प्रो. गयाराम पाण्डेय, प्रो. हरेराम त्रिपाठी, डॉ. पुष्पा त्रिपाठी, डॉ. अशोक सिंह, डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र, प्रो. रामबख्श मिश्र, डॉ.उदयन मिश्र,श्री प्रवीण तिवारी,प्रकाश उदय प्रभृति विद्वज्जन ने काव्यास्वाद प्राप्त किया। धन्यवाद-ज्ञापन विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने किया।
छठा विद्यानिवास मिश्र-स्मृति-व्याख्यान
विद्याश्री न्यास ने विगत १४-१५ नवम्बर को अपने वार्षिक कार्यक्रम ‘पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति व्याख्यान-माला की छठी कड़ी के रूप में प्रसिद्ध भाषाविद् श्री माणिक गोविन्द चतुर्वेदी (भू.पू. प्रोपेâसर, एनसीआरटी) के तीन महत्त्वपूर्ण व्याख्यान आयोजित किये। यह उपक्रम बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव एवं म.गां. काशीविद्यापीठ, वाराणसी के हिन्दी विभाग के सहयोग से सम्पन्न हुआ।
इसके अन्तर्गत पहले दिन दो सत्रों में दो व्याख्यान बड़ागाँव में हुए, जिसमें सरस्वती-वन्दना, प्राचार्य डॉ. उदयन मिश्र के स्वागत-सम्बोधन तथा सविता श्रीवास्तव द्वारा नरेश मेहता की कविता-‘मंत्रमुग्ध’ के पाठ के बाद ‘भारतीय भाषा-चिंतन’ पर बोलते हुए श्री चतुर्वेदी ने भारतीय ज्ञान को मूलत: भारतीय भाषा-चिन्तन पर आधारित बताया। पश्चिमी भाषा-चिन्तन ने भारतीय भाषा-चिन्तन से बहुत कुछ सीखा है, सीख रहा है। खेद का विषय है कि हमीं उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। उन्होंने अंग्रेजी ढंग से भारतीय इतिहास, भाषा, धर्म, संस्कृति आदि को समझने की कोशिशों को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। दूसरे सत्र में भारत की भाषिक एकता पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी-उर्दू जैसे भाषिक विभेद राजनैतिक हैं, भाषा वैज्ञानिक नहीं। भाषा के मामले में ही नहीं, विभिन्न स्तरों पर आज भी हम अंग्रेजों के तरीके से ही सोच रहे हैं और यही, भाषा ही नहीं; हर स्तर पर हमारी दुर्गति का कारण है। उन्होंने उक्त तथ्यों को सोदाहरण समझाया और स्थापित किया कि आर्थिक संरचना के स्तर पर ही नहीं भाषिक संरचना के प्रत्येक स्तर पर भारतीय भाषाएं एक दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई हैंं।
प्रथम सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रो. श्रद्धानन्द, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ ने भाषा के प्रति मनुष्य के उपेक्षापूर्ण रवैये को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रेखांकित किया और इसे मानव सभ्यता-संस्कृति के लिए खतरनाक बताया। उन्होंने विद्यार्थियों को शब्द-साधना के लिए प्रेरित किया और उन्हें एक रोचक विषय के रूप में भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रेरित किया। दूसरे सत्र की अध्यक्षत करते हुए महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ के प्रोपेâसर सत्यदेव त्रिपाठी ने बताया कि भारतीय भाषाओं की एकता के दो प्रमुख सूत्र हैं। पहला संस्कृत, जिससे सारी भाषाएं निकली हैं और उसी ढाँचे पर चल रही हैं। दूसरा सूत्र है लोक। सारे देश का लोक-जीवन सांस्कृतिक स्तर पर एकता के सूत्र में निबद्ध है जो सारी भाषाओं में गँुथा हुआ है उस धागे के तरह जो अलग-अलग पूâलों के बीच माला को एक कर देता है। इसे उन्होंने मराठी-गुजराती-मलयालम-तमिल आदि के उदाहरणों से प्रमाणित भी किया। दोनों सत्रों का संचालन प्रकाश उदय ने और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. छोटे लाल ने किया। विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र ने परिचय दिया।
दूसरे दिन डॉ. चतुर्वेदी का तीसरा व्याख्यान महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ के मानविकी संकाय के सभागार में सम्पन्न हुआ, जिसका विषय था भारतीय साहित्य में एकात्मकता। प्रो चतुर्वेदी ने अपने व्याख्यान में कहा कि साहित्य भी भाषा की ही एक प्रयुक्ति है और जिस तरह भारतीय भाषाओं में एकता के सूत्र विद्यमान हैं उसी तरह भारतीय साहित्य में भी। यह एकता उन भाषाओं में भी है जिनमें शास्त्रीय चिन्तन की परम्परा नहीं है और उनसे भी ज्यादा उन भाषाओं में है, जिनमें शास्त्रीय चिन्तन की परम्परा है और उनसे भी ज्यादा उन भाषाओं में है, जिनमें शास्त्रीय चिन्तन की ही नहीं, ललित लेखन की भी परम्परा रही है।
इस अवसर पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान के प्रो. प्रमोद दुबे ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए साहित्य की एकात्मकता को सभी भाषाओं में मौजूद ‘अकार’ से जोड़ा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो. सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने भारतीय साहित्य की एकात्मकता को बहुत कुछ भक्तिकाल की उपलब्धि के रूप में रेखांकित किया। डॉ. निरंजन सहाय एवं प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने प्रश्न-प्रतिप्रश्नों और अपने वैचारिक हस्तक्षेप से संगोष्ठी की गरिमा बढ़ायी।
अतिथियों का स्वागत काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. श्रद्धानन्द ने किया, डॉ. दयानिधि मिश्र ने धन्यवादज्ञापन करते हुए हिन्दी के हित के लिए युवाशक्ति को कबीर की तरह लिए लुकाठी हाथ चलाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने उपजीव्य के रूप में रामायण-महाभारत को भारतीय एकात्मकता का महत्त्वपूर्ण सूत्र बताया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. शिवकुमार मिश्र ने किया।
अज्ञेय-स्मृति-व्याख्यान
पं. विद्यानिवास मिश्र द्वारा स्थापित ‘श्रद्धानिधि न्यास’, गाँधी अध्ययन-केन्द्र, श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज, बड़ागाँव, विद्याश्री न्यास एवं साहित्यिक संघ, वाराणसी के संयुक्त तत्त्वावधान में २६ दिसम्बर को संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के योग-साधना केन्द्र में और ३० दिसम्बर को श्रीबलदेव पी.जी. कॉलेज में प्रसिद्ध साहित्यकार, विचारक पद्मश्री रमेशचन्द्र शाह ने अज्ञेय की स्मृति में आयोजित व्याख्यानमाला के अन्तर्गत अज्ञेय के कवि कर्म, उनकी पत्रकारिता और यायावरी तथा एक आलोचक राष्ट्र के गद्यकार के रूप में अज्ञेय के रचना-कर्म पर अपने तीन व्याख्यानों के माध्यम से विस्तार से विचार किया।
अपने पहले व्याख्यान में उन्होंने बताया कि जड़ीभूत साहित्याभिरुचि जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि से भी अधिक घातक होती है। प्रगति और नवप्रगति के नाम पर नयी सौन्दर्याभिरुचि का जो नया विमर्श चला उसमें कविता अपने उद्देश्य से ही भटक गई। ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों के बीच कविता की खासियत यही है कि वह सम्पूर्ण मनुष्यता को अभिव्यक्त करती है जिसके अन्तर्गत भावात्मक, बौद्धिक और ऐन्द्रिक तीनों आयामों का समन्वय होता है। वस्तुत: सर्वांगीण बुद्धिमत्ता भी यही है, लेकिन नई पीढ़ी में इसकी कमी होती जा रही है। सभी तरह के धर्मों का अतिक्रमण कर जाना ही एक प्रकार से आधुनिक धर्म बन गया है। इस दृष्टि से अज्ञेय हमारा मार्गदर्शन करते हैं क्योंकि उनकी कविता का जीवन और अनुभव की बहुस्तरीय सच्चाई से एक समग्र और बहुरूपी-बहुविध रिश्ता बनता है।
अज्ञेय की पत्रकारिता और यायावरी के संदर्भ में प्रो. शाह ने कहा कि उनके पत्रकार-कर्म में साहित्यिक और गैर-साहित्यिक दोनों प्रकार की पत्रकारिता शामिल है, और सम्पादन-कार्य भी। उनकी सर्जना की तरह उनकी पत्रकारिता भी आत्मानुशासित और मुक्त है। इस क्रम में उन्होंने एक तरफ हिन्दी भाषा को पंडिताऊ बोझिलता से छुटकारा दिलाया तो दूसरी तरफ अंग्रेजी की आक्रामक प्रभुसत्ता वाले स्वर से भी उसे मुक्त रखा। अपनी परंपरा, संस्कृति और अस्मिता के प्रति अज्ञेय को उनकी यायावरी ने निरन्तर प्रबुद्ध किया और इसके चलते भी साहित्य और पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में अज्ञेय विशिष्ट और स्मरणीय हैं।
अपने तीसरे व्याख्यान में प्रो. शाह ने एक आलोचक राष्ट्र के गद्यकार के रूप में अज्ञेय के रचना-कर्म पर विमर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि राजनैतिक स्वाधीनता के लिए अज्ञेय ने बेशक प्राणों की बाजी लगा दी थी, लम्बा कारावास भुगता था लेकिन सांस्कृतिक स्वाधीनता उनके लिए राजनैतिक स्वतंत्रता से कहीं उच्चतर, गहनतर मूल्य रखती थी। उन्होंने गाँधी और अज्ञेय के वैचारिक धरातल की भिन्नता के बावजूद उसमें निहित एकता के तत्त्व को भी सामने किया। अप्रâीका से लौटने के बाद देशवासियों की जो कमियाँ गाँधी जी को सबसे ज्यादा खटकीं, वे थीं- सर्वव्यापी गंदगी और मानसिक-बौद्धिक आलस्य। अज्ञेय इसी बौद्धिक आलस्य और अकर्मण्यता के आलोचक थे। नैतिक खोट, सांस्कृतिक भोथरेपन के खिलाफ गाँधी और अज्ञेय ने अपनी-अपनी तरह से संघर्ष किया।
इन तीनों व्याख्यानों में अध्यक्ष क्रमश: प्रो. राधेश्याम दूबे, प्रो. अवधेश प्रधान तथा डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय तथा विशिष्ट अतिथि क्रमश: प्रो. रमेश कुमार द्विवेदी, प्रो. श्रद्धानन्द और डॉ. अरुणेश नीरन ने भी अज्ञेय के रचना-कर्म के विभिन्न आयामों को विश्लेषित किया। स्वागत और धन्यवाद का दायित्व श्रद्धानिधि न्यास के न्यासी तथा विद्याश्री न्यास के सचिव डॉ. दयानिधि मिश्र और श्री बलदेव पी.जी. कॉलेज के प्राचार्य डॉ. उदयन मिश्र ने निभाया। संचालन डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र और डॉ. सविता श्रीवास्तव ने किया। इन व्याख्यानों में नगर के विद्वज्जन, रचनाकारों ने भारी संख्या में शिरकत की।
गतिविधि २०१०
भारतीय लेखक-शिविर एवम्
‘भाषा, शिक्षा एवं संस्कृति’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
(१४-१६ जनवरी, २०१०)
पण्डित विद्यानिवास मिश्र के विचार-चिन्तन के विभिन्न आयामों में भाषा, शिक्षा और संस्कृति प्रमुख हैं। उनकी स्मृति में उनके जन्मदिवस पर आयोजित होने वाले भारतीय लेखक-शिविर में अबकी बार इन्हें ही विमर्श के विषय के रूप में रखा गया। रथयात्रा, काशी में स्थित कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन में १४, १५ एवं १६ जनवरी को भारतीय लेखक-शिविर एवं राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारत के विभिन्न प्रान्तों से पधारे विद्वानों, प्रतिभागियों ने भाषा, शिक्षा और संस्कृति के विभिन्न आयामों पर पण्डित विद्यानिवास मिश्र के एतद्विषयक चिन्तन के आलोक में अपने महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किए। महत्त्वपूर्ण है कि विभिन्न विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के अध्यापकों-विद्यार्थियों ने इस संगोष्ठी में भागीदारी की और साहित्यकारों की नई-पुरानी पीढ़ी के साथ साक्षात् और संवाद का लाभ उठाया। इस क्रम में छात्रों-शोधार्थियों के प्रोत्साहन हेतु निबन्ध एवं काव्य-प्रतियोगिता भी आयोजित की गई। सांस्कृतिक संध्याओं के आयोजन ने इस कार्यक्रम को बहुरंगी छवि प्रदान की।
१४ जनवरी २०१०
उद्घाटन-सत्र
पूर्वाह्न १० बजे आरंभ हुए उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि थे सुप्रसिद्ध साहित्यकार पद्मश्री रमेश चन्द्र शाह। इस समारोह की अध्यक्षता पं. वेणी माधव शुक्ल (पूर्व कुलपति, गोरखपुर विश्वविद्यालय) ने की। संचालन किया विश्व भोजपुरी सम्मेलन के अन्तरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. अरुणेन नीरन ने। डॉ. महेश्वर मिश्र (अध्यक्ष, विद्याश्री न्यास) ने अतिथियों का स्वागत किया।
इस सत्र में प्रमुख रूप से शिरकत करने वालों में श्री गोविन्द राजन, श्रीमती भारती गोरे, श्री शंकर लाल पुरोहित, माणिक गोविन्द चतुर्वेदी, श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी, प्रो. मंजुला चतुर्वेदी, श्री रामाश्रय राय, श्री रामानंद त्रिपाठी, श्री राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, प्रो. राजीव द्विवेदी, प्रो. श्रद्धानन्द, डॉ. श्रीप्रकाश शुक्ल, डॉ. मुक्ता, प्रो. काशीनाथ सिंह, प्रो. शिवजी उपाध्याय, श्री रमेश कुमार द्विवेदी आदि ने पंडित जी की स्मृति से जुड़े अपने रोचक संस्मरण सुनाये। मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए श्री रमेश चन्द्र शाह ने पंडित जी के व्यक्तित्व को उस प्रज्ञा का प्रतीक बताया जो विरोधियों को भी साथ लेकर चलने को संकल्पित था। साथ ही उन्होंने पंडित जी की भाषा-साहित्य की मर्मज्ञता, जीवन दृष्टि तथा समाज-चेतना पर भी प्रकाश डाला। प्रो. वेणी माधव शुक्ल ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पंडित जी के बचपन के चुलबुले संस्मरण सुनाए और कहा कि भारत ज्ञान के बल पर ही अपनी प्राचीन महिमा को प्राप्त करेगा जिसमें पंडित विद्यानिवास मिश्र जैसे मनीषियों की आहुति सर्वोच्च होगी।
प्रथम सत्र : शिक्षा की भारतीय अवधारणा : परम्परा और प्रयोग
१४ जनवरी को आरंभ हुए प्रथम सत्र में उक्त विषय पर विशद चर्चा हुई। इस सत्र का संचालन श्री ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने किया। सत्र के अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ. कृष्ण दत्त पालीवाल ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में उपनिषदवादी व साम्राज्यवादी तथा मैकाले की नीतियों के तहत हुई क्षतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि आज भी हम पश्चिमी प्रतिमानों का ही पालन कर रहे हैं। प्रो. हरिकेश सिंह ने कहा कि भारतीय शिक्षा की परम्परा और उसके प्रयोग में ‘संस्कारों से युक्त व्यक्तित्व’ और ‘सुसंस्कृत व्यक्ति’ को ही मूल बोध के रूप में समझना होगा। परम्परा की पहचान में आज भी विनय, करुणा, शील, प्रज्ञा एवं अहिंसा आधारित संस्कृति की ओर ही देखना होगा। इसी क्रम में डॉ. रामसुधार सिंह ने शिक्षा को व्यक्तित्व के रुपान्तरण का माध्यम माना। उनके अनुसार विद्या की चार प्रक्रियाएँ- अध्ययन, मनन, प्रवचन और प्रयोग हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि शिक्षा व्यक्ति के संस्कार और परिष्कार से जुड़ी है न कि सूचना के संकलन से। शिक्षा मनुष्य को समग्रता की ओर ले जाती है और नए विकल्प के अवसर प्रदान करती है। यह प्रवाह सर्जनात्मकता को पुष्ट करता है। शंकर शरण श्रीवास्तन ने भारतीय स्व और भारतीय संस्कृति पर आधारित शिक्षा की आवश्यकता बतायी। श्रीमती बेन्नी पासाह ने शिक्षा को भावी जीवन की तैयारी मात्र नहीं बल्कि जीवन-यापन की प्रक्रिया बताया। डॉ. अरविन्द झा ने भारतीय जीवन में शिक्षा की प्रक्रिया को एक ऐसी साधना बताया जिसमें ज्ञान का विस्तार आत्मा के स्वरूप की खोज के साथ जुड़ा था और ब्रह्म के साथ उसका तादात्म्य होता था। सुशील कुमार शर्मा ने आज के परिवेश में भारतीय शिक्षा को अर्थमूलक मात्र बताया। डॉ. विश्वनाथ वर्मा के अनुसार आज की शिक्षा नैतिक मूल्यों पर आधारित न होकर जीविकोपार्जन का साधन मात्र रह गई है। संतोष कुमार व शशिकला पाण्डेय ने शिक्षा में कम्प्यूटर जैसी नई तकनीक के महत्त्व की चर्चा की। भारतीय शिक्षा की अवधारणा : परम्परा और प्रयोग विषय पर बोलते हुए शशिकला पाण्डेय ने कहा कि भारतीय शिक्षा की दो परम्पराएँ थीं एक गुरुकुल की परम्परा और दूसरी पारंपरिक व्यावसायिक शिक्षा। दोनों ही परम्परावाली शिक्षा मानव को पूर्ण मानव बनाने के साथ ही आजीविका से भी जोड़ने वाली और समाज को सुदृढ़ बनाने वाली थी किन्तु दीर्घकालीन परतन्त्रता के कारण शिक्षा की वह सुदृढ़ परम्परा शोध और नवीनीकरण के अभाव में कमजोर होती गयी, अंग्रेजी की वूâटनीतिक चाल के सामने वह व्यवस्था चरमरा उठी। स्वतंत्रता-संघर्ष के समय स्वतंत्रता सेनानियों ने इस चाल को पहचाना था और इसीलिए गांधी जी ने बुनियादी शिक्षा की अवधारणा प्रस्तुत की थी जो प्रभावी ढंग से लागू नहीं हो पाई।
इस क्रम में प्रो. हरिकेश सिंह ने कहा कि भारतीय शिक्षा की परम्परा और इसके प्रयोग पर विचार करते समय यह स्पष्टत: समझना होगा कि भारत में शिक्षा, भाषा और संस्कृति तीन अलग-अलग अवधारणाएँ नहीं हैं भारत में शिक्षा का अभिप्राय शील-निर्माण के साथ सर्वमयता का भाव एवं संकल्प बनाना होता था और अब भी यदि परम्परा की पहचान बनानी हो तो विनय, करुणा, शील, प्रज्ञा एवं अहिंसा आधारित संस्कृति के निर्माण में मानव जाति को सदैव भारतीय शैक्षिक परम्परा की ओर ही देखना होगा।
डॉ. कृष्ण दत्त पालीवालने अपने व्याख्यान में कहा कि- भारतीय शिक्षा व्यवस्था के ढाँचे को पूरी तरह औपनिवेशिक गुलामी ने ध्वस्त किया। नीति बनाकर अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने भारत की शिक्षा-परम्परा में परिवर्तन किए। मैकाले की नीतियों ने संस्कृत विद्यालयों और संस्कृत को नष्ट किया। औपनिवेशिक गुलामी ने शिक्षा को नए प्रतिवूâल प्रतिमान दिए और उसी तर्ज पर हम चले जा रहे हैं। जिसका परिणाम यह हुआ कि हम पश्चिम के पीछे चल पड़े हैं और शिक्षा का नव साम्राज्यवाद स्थापित हो रहा है।
द्वितीय सत्र : शिक्षा की चुनौतियाँ
१४ जनवरी को उक्त विषय पर हुई परिचर्चा का संयोजन/संचालन किया प्रो. चितरंजन मिश्र ने। इस सत्र में बोलते हुए डॉ. वागीश शुक्ल ने कहा कि शिक्षा-प्रणाली आज विसंगतियों और अनिर्णय की स्थिति से जूझ रही है इसमें सुधार तभी संभव है जब समाज स्वयं चेते। इसी क्रम में डॉ. वीणा पाठक ने कहा कि हम संस्कृति से हट कर सर्वांगीण विकास नहीं कर सकते हमारी शिक्षा संस्कृतिपरक होनी चाहिए। डॉ. राजेन्द्र शरण शाही ने कहा कि आज हमारे देश में नामांकन दर लगभग ११ प्रतिशत है जो अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है उन्होंने बताया कि यही नामांकन प्रतिशत विकसित देशों में ५२ प्रतिशत है। उन्होंने शिक्षा के पिछड़ेपन का हवाला देते हुए कहा कि इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि सरकार शिक्षा पर बहुत कम व्यय करती है। अगले वक्ता के रूप में नरेश प्रसाद भोक्ता ने कहा कि शिक्षा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली प्रक्रिया है जो अनवरत समाज को नई दिशा देती है। पूर्वोत्तर की हरप्यारी देवी ने आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा कि आज शिक्षकों द्वारा शिक्षा को रोजगारपरक अवसर समझना, शिक्षा-पद्धति की अनदेखी करना हमारी गिरते शिक्षा-स्तर के दोषी हैं, उन्होंने कहा कि शिक्षा हमें जीने की कला सिखाती है और समाज को नई दिशा देती है। अंतत: अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने शिक्षा-प्रणाली की विसंगतियों पर गहरी चिन्ता व्यक्त की, किन्तु सुधार के प्रति आश्वस्त भी किया। इस अवसर पर उमा देवी, शाइनी के. संगमा, सावंत राज दकाल आदि ने भी अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किए।
कवि-गोष्ठी
१४ जनवरी को सायं हरिराम द्विवेदी के संयोजन में कवि-गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस कवि-गोष्ठी की अध्यक्षता वयोवृद्ध कवि श्री रामनवल मिश्र ने की तथा संचालन ख्यातिलब्ध गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने किया। कविगोष्ठी का आरंभ हरिराम द्विवेदी द्वारा प्रस्तुत सरस्वती-वन्दना से हुआ। ब्रजेन्द्र त्रिपाठी ने ‘‘काश कोई ऐसा जहाँ होता, जिस जगह अपना आशियाँ होता’’ सुनाया। हिमांशु उपाध्याय ने ‘‘देख रहा हूूँ भटकी हुई भँवर तुम्हारी आँखों में’’ सुनाकर वाहवाही लूटी। डॉ. अरुणेश नीरन की कविता- ‘बरसात दीवाली की’ और ‘नववर्ष की पूर्व संख्या पर’ को लोगों ने खूब सराहा। प्रो. मूलचन्द मानव ने सुनाया- ‘अंधेरे दूर होते है, उजाले पास होते हैं। हमारे बीच में जब आपसी विश्वास होते हैं’। भूषण त्यागी ने गीत सुनाया- ‘हैं स्वयं से शिकायत यही रात दिन कुछ लिखा क्यूं नहीं जिन्दगी के लिए/देवता के लिए ग्रन्थ रचता रहा कुछ लिखा क्यों नहीं आदमी के लिए।’ पं. श्रीकृष्ण तिवारी की कविता- ‘‘नींद नहीं आती’’ लोगों को खूब पसंद आयी। डॉ. अशोक सिंह ने अपनी ताजा गीत-रचनाएँ सुनाई। डॉ. प्रकाश उदय ने भोजपुरी गीत सुनाए। वयोवृद्ध कवि पं. रामनवल मिश्र ने कृष्ण-राधा प्रसंग सुनाकर लोगों को मंत्र मुग्ध कर दिया। इस कवि-गोष्ठी में शिरकत करने वालों में डॉ. अनंत मिश्र, डॉ. एम. गोविन्दराजन, सुरेश अकेला, डॉ. माधवेन्द्र पाण्डेय, सुरेन्द्र बेकहल, योगेन्द्र नारायण वियोगी, सुन्दरश्याम, परमानन्द आनंद, विनय कपूर, श्रीमती रचना राय, डॉ. अशोक मिश्र, ओमलता साख्य, श्रीमती विद्यावती देवी, डॉ. जोरम आनिया ताना, सुश्री उमा देवी, श्रीमती सिल्वी पासाह, राम गोपाल सर्राफ, संतोष कुमार, डॉ. सुशील कुमार शर्मा, प्रो. योगेश्वर कौर, साइनी के सांगमा, विनीता अकोइज्म, अमित कुमार, सुश्री हरि प्यारी देवी आदि रहे।
इस अवसर पर अतिथियों को स्मृति-चिन्ह एवं अंगवस्त्रम प्रदान कर उन्हें सम्मानित किया गया।
१५ जनवरी २०१०
तृतीय सत्र : भारतीय भाषाएँ एवं बोलियाँ
१५ जनवरी को प्रात: १० बजे से आरंभ हुए प्रथम सत्र की अध्यक्षता की श्री माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने। इस सत्र के प्रमुख वक्ता विश्व भोजपुरी-सम्मेलन के अन्तरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. अरुणेश नीरन ने भाषा एवं बोलियों के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए कहा कि भाषा और बोली में व्युत्पत्ति की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है लेकिन भाषा में दार्शनिक बोलता है जब कि बोली में सन्त गाता है। उन्होंने सभी भारतीय बोलियों के लोक साहित्य में निहित प्रतिरोध की शक्ति को रेखांकित किया। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय ने भाषा को आधार बनाकर भारत और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध अंग्रेजों के गम्भीर षडयन्त्रों को उजागर करते हुए भाषाओं और बोलियों के अन्तर्संबन्धों को स्पष्ट किया। प्रभाकर मिश्र ने बोलियों की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए बोलियों के विकास को सम्भव बताया। डॉ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी ने भाषा को गंगा और बोलियों को सहस्त्रधारा के रुप में परिभाषित करते हुए दोनों को एक दूसरे के लिए जरूरी बताया। डॉ. राम बख्श मिश्र ने हिन्दी और भोजपुरी के सन्दर्भ में भाषा और बोली के पारस्परिक सम्बन्धों के विविध आयामों को प्रकट किया। डॉ. मधुधवन ने कहा कि दक्षिण और उत्तर भारत को मिलकर भाषा और बोली को विकसित करना होगा। मिलन रानी जमातिया ने विलुप्त होती भाषाओं को बचाने का विचार दिया। जोरम आनियसा ताना ने लिपियों की भिन्नता के कारण नष्ट हो रही भाषा पर चिन्ता जताते हुए कहा कि लिपि-विहीन होने के कारण लोकसाहित्य नष्ट हो रहा है। उन्होंने बताया कि अरुणांचल प्रदेश में ११० जनजातियाँ हैं जिनकी सम्पर्वâ-भाषा हिन्दी को रखा गया है। पूर्वोत्तर में हिन्दी के समर्थन में हुए आन्दोलन की भी उन्होंने चर्चा की। प्रभाकर मिश्र ने कहा कि बोली के समृद्ध होने से भाषा कमजोर नहीं होगी, इसलिए हमें अपनी बोलियों को समृद्ध करने की ओर ध्यान देना चाहिए। अरुणाचल से आयी सोनम जी ने कहा कि देश का अस्तित्व अपनी भाषा से है न कि अन्य भाषाओं से। हिन्दी दुनिया भर में बोली जाने वाली विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है। उन्होंने खेदपूर्वक कहा कि आज हिन्दी शब्दावली की विस्तारवादी अवधारणा के बावजूद हम रोमन भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और हिन्दी का गला घोटते जा रहे हैं। इसी क्रम में डॉ. रामबख्श मिश्र ने हिन्दी और भोजपुरी के सन्दर्भ में भाषा और बोली के पारस्परिक रिश्तों के विविधि आयामों को प्रकट किया। अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ. माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने कहा कि हिन्दी स्वयं में अत्यंत समृद्ध एवं विस्तृत भाषा है। उन्होंने हिन्दी की अन्तरराष्ट्रीय पहचान को रेखांकित किया और हिन्दी की बोलियों के साथ ही हिन्दी और उर्दू के रिश्तों पर विमर्श प्रस्तुत किया। इस सत्र में पूर्वोत्तर भारत से आए विभिन्न प्रदेशों के प्रतिभागियों ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किए जिनमें मिलन जमातिया, एस रिपुप्यारी देवी, मधु धवन आदि मुख्य थे। इस सत्र का संयोजन/संचालन म.गां. काशी विद्यापीठ के हिन्दी विभाग के प्रो. सत्यदेव त्रिपाठी ने अपने चुटीले अंदाज में किया।
चतुर्थ सत्र : भारत में हिन्दी
१५ जनवरी का द्वितीय सत्र अपराह्न १ बजे से आयोजित हुआ। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी तथा संचालन डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने किया। इस सत्र में भाग लेने वाले विद्वानों में देश के विभिन्न प्रान्तों में हिन्दी की स्थिति पर प्रकाश डालने के क्रम में प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय ने पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी-सम्बन्धी चेतना के लम्बे इतिहास को प्रस्तुत किया। प्रो. दिलीप सिंह ने दक्षिण भारत में हिन्दी साहित्य के अनुवाद और हिन्दी शिक्षण, शोध आदि के सन्दर्भ में विभिन्न संस्थाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला। श्री एम. गोविन्द राजम ने प्रमाणित किया कि वैâसे हिन्दी उत्तर भारत के लोगों के मुँह में है, लेकिन दिल में नहीं है जबकि दक्षिण भारतीयों के मुँह में भले हिन्दी नहीं है, दिल में जरूर है। डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी ने बताया कि महाराष्ट्र में अपनी भाषा-संस्कृति की निजता को बचाए रखने की चिन्ता तो जरूर है, लेकिन हिन्दी का विरोध नहीं है। उन्होंने मुम्बई में मुम्बइया हिन्दी के रूप में विकसित हिन्दी को हिन्दी के अधिक भारतीय विस्तार के रुप में चिह्नित किया। शंकर लाल पुरोहित ने उड़ीसा और बंगाल में हिन्दी के विकास और विस्तार के लिए किए गये कार्यों पर प्रकाश डाला तथा हिन्दी के विकास के प्रति अपना विश्वास प्रकट किया। प्रो. सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने अंग्रेजी के प्रति ललक को गुलाम मानसिकता से जोड़ते हुए हिन्दी के विकास के सन्दर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए। डॉ. रीता रानी पालीवाल ने कहा कि हमारे अनुवादजीवी भाषा में बोलने से हिन्दी को खतरा पैदा हो रहा है। लिली खार प्राण ने बताया कि हिन्दी में अद्भुत सम्प्रेषणीयता है। पूâलचन्द मानव ने हिन्दी साहित्य में पंजाब के योगदान का उल्लेख किया। डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रत्येक भाषा की निजता और उसके अस्तित्व की रक्षा की अपेक्षा बताई। उन्होंने हिन्दी की व्यापकता और विविधता को उसकी शान बताया।
सांस्कृतिक-कार्यक्रम
१५ जनवरी को पंडित विद्यानिवास मिश्र-रचित रेडियो रूपक ‘गार्गी वाचक्नवी’ का सफल मंचन श्री एन.के. आचार्य की टीम द्वारा प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही पूर्वोत्तर की प्रतिभागियों ने बिहू एवं मणिपुरी नृत्य प्रस्तुत किया। इसी क्रम में सविता सोनी द्वारा शास्त्रीय संगीत एवं गजलों की प्रस्तुति की गई।
१६ जनवरी २०१०
पंचम सत्र : भारतीय संस्कृति – इतिहास और भविष्य
१६ जनवरी को प्रात: १० बजे से आहूत प्रथम सत्र में ‘‘भारतीय संस्कृति- इतिहास और भविष्य’’ विषय पर परिचर्चा हुई। इस सत्र की अध्यक्षता श्री रामाश्रय राय ने की तथा संचालन प्रो. बलराज पाण्डेन ने किया। सत्र के प्रमुख वक्ता रमेश चन्द्र शाह ने कहा कि भारत की संस्कृति को समझना होगा। जो व्यक्ति अपने अतीत को नहीं देखता, वह अपने भविष्य को भी नहीं सँवार सकता। डॉ. भारती गोरे ने महाराष्ट्र की संस्कृति, कला व साहित्य आदि का उल्लेख करते हुए भारतीय संस्कृति में उसके योगदान को रेखांकित किया। श्रुति पाण्डेय को लगा कि पूर्वोत्तर राज्यों की समृद्ध संस्कृति को यथोचित महत्त्व नहीं दिया गया। प्रो. अवधेश प्रधान ने कहा कि यदि विश्व को संस्कृति का उत्कर्ष चाहिए तो उसे भारत की ओर देखना होगा। कृष्ण दत्त पालीवाल ने भारतीय संस्कृति के निर्माण में कविता का विशेष महत्त्व स्वीकारा तथा भाषा को ही संस्कृति माना। वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता की चर्चा की जो हर जगह से कुछ न कुछ लेकर आगे बढ़ती है। पं. श्री कृष्ण तिवारी ने गीत के माध्यम से संस्कृति पर कुठाराघात करने वाली शक्तियों पर करारा प्रहार किया। श्रीमती प्रतिभा मिश्र ने दूसरों के तर्वâ को सुनने और समझने पर जोर दिया, ताकि उनकी संस्कृति को समझा जा सके। रामाश्रय राय ने बताया कि अंग्रेजों के शासन में आये विदेशी तत्त्वों से विचारों के परिवर्तन की प्रक्रिया चल पड़ी जिसने भारतीय संस्कृति के विघटन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। उन्होंने इन परिवर्तनों से छुटकारा पाने में ही भारतीय संस्कृति का भविष्य देखा। श्री माणिक गोविन्द चतुर्वेदी ने कहा कि प्रत्येक बालक में सीखने की प्रवृत्ति होती है और यदि हम घर में अच्छी भाषा का प्रयोग करते हैं तो निश्चित ही वह भाषिक संस्कृति से परिचित होगा। आज सामाजिकता के लोप का सबसे बड़ा कारण है शिक्षकों का स्वतंत्र न होना। उन्होंने कहा कि सब कुछ परिवर्तनशील है, संस्कृति बहता जल है और वह भी भाषा की दिशा में ही
गतिविधि २००९
भारतीय लेखक-शिविर एवम् आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति संवाद
(१४-१८ जनवरी, २००९)
१४ जनवरी, २००९
उद्घाटन-सत्र
पतितपावनी माँ गंगा के मोक्षदायी तट पर अवस्थित भारत के सांस्कृतिक तीर्थस्थल एवम् बाबा विश्वनाथ की पवित्र नगरी काशी के ‘रथयात्रा’ स्थित ‘कन्हैयालाल गुप्ता मोतीवाला स्मृति भवन’ के सभागार में ‘विद्याश्री न्यास तथा उत्तरप्रदेश भाषा संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में ‘भारतीय लेखक शिविर’ और ‘आचार्य विद्यानिवास मिश्र स्मृति-संवाद’ के वैचारिक उत्सव में पाँच दिनों तक विभिन्न सत्रों में आये भाषा-साहित्य के मर्मज्ञों, शब्द-शिल्पियों, रचनाकारों, संस्कृति कर्मियों, समीक्षकों-आलोचकों एवम् विविध पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों ने मिश्र जी के व्यक्तित्व-कृतित्व के आलोक में साहित्य के साथ-साथ भारत की संस्कृति तथा चिंतन-परम्परा के विभिन्न आयामों पर उन्मुक्त विचार-विमर्श किया।
पूर्वाह्न १०.०० बजे, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. गोपाल-चतुर्वेदी, कार्यकारी अध्यक्ष उ.प्र. भाषा-संस्थान, लखनऊ की अध्यक्षता में सम्पन्न उद्घाटन-सत्र के मुख्य अतिथि थे डॉ. अवधराम, कुलपति, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी तथा इसका संचालन किया ‘विश्व भोजपुरी सम्मेलन’ के अन्तरराष्ट्रीय महासचिव डॉ. अरुणेन नीरन ने। डॉ. महेश्वर मिश्र, अध्यक्ष विद्याश्री न्यास ने स्वागत-वक्तव्य दिया। अपने सम्बोधन में डॉ. अवधराम ने मिश्र जी के गँवई मन, भाषा-साहित्य की मर्मज्ञता, जीवन-दृष्टि तथा समाज-चेतना पर प्रकाश डाला। डॉ. गोपाल चतुर्वेदी ने कहा कि वे प्रगतिशील परम्परा के समर्थक, सम्पोषक, रक्षक और संवद्र्धक थे। उनकी साधना ने भारतीय संस्कृति और परम्परा को वैभवशाली बनाया है, जो उनके जीवन-दर्शन का अभिन्न अंग थी।
इस अवसर पर विद्याश्री न्यास की ओर से लब्धप्रतिष्ठ गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी को ‘लोककवि-सम्मान’ से समादृत किया गया तथा अतिथियों द्वारा श्री मिश्र जी की बहुचर्चित कृति ‘हिन्दू धर्म, सनातन की खोज’ के डॉ. रत्ना लाहिड़ी द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद द हिन्दू वे : अ सर्च फॉर द इटर्नल’ का लोकार्पण भी किया गया। इसके अतिरिक्त फाउंडेशन्स आव इण्डियान एस्थेटिक्स तथा ‘प्रâाम द गंगा टु द मेडीटेरियन’ शीर्षक दो अन्य ग्रन्थों का भी लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर पूर्वोत्तर भारत की छात्राओं के स्वागत-गान ने श्रोताओं को अभिभूत कर दिया था।